SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कीर देश के राजा के लिये बहुमूल्य हार पहिनाकर, पांचाल देश के राजा के लिये मणिमयी मेखला पहिनाकर, टक्क देश के राजा के लिये स्वर्णमयी हार की लड़ी पहिनाकर, जालन्धर नरेश के लिये प्रालम्ब (लम्बा हार) पहिनाकर, सोन देश के राजा को मुकुट पहिनाकर बाण सहित तूणीर से निबद्ध कर, सिन्धु देश के राजा के लिये केयूर प्रदान कर, - हम्मीर राजा को चित्ताकर्षक कंकण प्रदान कर, मालव नरेश को सुन्दर कंकणों से प्रसाधित कर, - खश नरेश को सरोपा भेंट कर, - नेपाल नरेश को चूडारत्न प्रदान कर। प्रतीत होता है कि 11वीं-12वीं सदी में हरयाणा, दिल्ली एवं काशी में उक्त वस्तुओं का विशेष विशेषज्ञता के साथ निर्माण किया जाता था तथा उनका दूसरे देशों में निर्यात भी किया जाता रहा होगा। असम्भव नहीं कि इन वस्तुओं के व्यापार से कवि श्रीधर के आश्रयदाता साहू नट्टल का भी सम्बन्ध रहा हो, क्योंकि साहू नट्टल का जिनजिन देशों से व्यापारिक सम्बन्ध बतलाया गया है, उस सूची में उक्त देशों के नाम भी आते हैं। मध्यकालीन भारत की आर्थिक एवं व्यापारिक-दृष्टि से तो ये उल्लेख महत्वपूर्ण हैं ही, तत्कालीन, कला, सामाजिक-अभिरुचि एवं विविध-निर्माण सामग्री के उपलब्धि-स्थलों तथा उद्योग-धन्धों की दृष्टि से भी उनका अपना विशेष महत्त्व है। । युवराज-पार्व के साथ युद्ध में भाग लेने वाले नरेश एवं उनके द्वारा शासित राज्य बुध श्रीधर के अनुसार (पार्श्व के ) काशी-देश की ओर से यवनराज के साथ लोहा लेने वाले राज्यों की सूची इस प्रकार है :- नेपाल, जालन्धर, कीरट्ठ एवं हम्मीर, इन्होंने हाथियों के समान चिंघाड़ते हुए। - सिन्धु, सोन एवं पांचाल-उन्होंने भीम के समान मुखवाले बाण छोड़ते हुए। मालव, आस, टक्क एवं खश, कर्नाटक, लाट, कोंकण, बराट, ताप्तितट, द्रविड, भृगुकच्छ, कच्छ, वत्स, डिडीर, विन्ध्य, कोसल, महाराष्ट्र एवं सौराष्ट्र के राजाओं ने दुर्दम यवनराज के साथ विषम-युद्ध करके। प्रतीत होता है कि उक्त राज्यों ने अपना महासंघ बनाकर काशी-नरेश का साथ दिया होगा, और इनकी सम्मिलित-क्ति ने यवनराज को बार-बार पीछे धकेल दिया होगा। इतने देशों के नामों के एक साथ उल्लेख अपना विशेष महत्व रखते हैं। यवनराज सुबुक्तगीन एवं उसके उत्तराधिकारियों तथा मुहम्मद गोरी के आक्रमणों से जब धन-जन, सामाजिक एवं राष्ट्रीय-प्रतिष्ठा की हानि एवं देवालयों का विनाश किया जा रहा था, तब प्रतीत होता है कि राष्ट्रीय-सुरक्षा एवं समान-स्वार्थों को ध्यान में रखते हुए पड़ोसी एवं सुदूरवर्ती राज्यों ने उक्त यवनराजाओं के आक्रमणों के प्रतिरोध में सम्भवतः तोमरवंशी राजा अनंगपाल तृतीय के साथ अथवा अपना कोई स्वतन्त्र महासंघ बनाया होगा। कवि ने सम्भवतः उसी की चर्चा पार्श्व एवं यवनराज के युद्ध के माध्यम से प्रस्तुत की है। यथार्थतः यह विषय बड़ा रोचक एवं गम्भीर-शोध का विषय है, शोधकर्ताओं एवं इतिहासकारों को इस दिशा में अनुसन्धान करना चाहिए। 1. पासणाह. अन्त्य प्रशस्ति। 2. पासणाह. 4/11-12 प्रस्तावना :: 67
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy