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________________ कवि ने सम्यक्त्व के स्वरूप में देव शास्त्र और गुरु के श्रद्धान को तो स्थान दिया ही है, साथ ही उन कारणों का भी विवेचन किया है, जिनसे सम्यक्त्व की उत्पत्ति और समृद्धि होती है । उत्पत्ति में स्वाध्याय एवं ध्यान के अतिरिक्त मोह, माया, प्रमाद का त्याग, दया-धर्म के प्रति अनुराग, पाप-कर्म के प्रति विचिकित्सा आदि भी परिगणित हैं। सम्यक्त्व की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है : सम्मत्त पहावें सुरयणाहँ पुज्जिज्जइ गरु तिहुअणे वि मोक्खु सम्मत्तहो जिणवइणा पउत्तु । संदोहॅ णिम्मल परम मणाहॅ । पुणु जाइ संजणइ परम सोक्खु । घत्ता गुण-जुत्तहो सम्मत्तहो विवरीए मिच्छत्तें । 1 तदन्तर कवि ने पंचाणुव्रतों का निरूपण किया है। अहिंसाणुव्रत में संकल्पी हिंसा के त्याग के साथ-साथ आचार-विचार, रहन-सहन एवं भोजन - पान की शुद्धि को भी महत्व दिया है । कवि ने आर्ष-परम्परा के अतिरिक्त अपने अनुभव और आचार के आधार पर भोजन- शुद्धि एवं आचार-विचार को भी अहिंसाव्रत में परिगणित किया है। दया, दान, पूजा आदि भी इस व्रत के धारी के लिए आवश्यक है साथ ही, कन्द, फल, मूल का त्याग एवं अभक्ष्यत्याग भी अनिवार्य है। (10/5-6) भवसायर असुहायरि पांडिज्जइ अक्खत्तें ।। पासणाह. 10-4 / 8-12 सत्याणुव्रत का स्वरूप परम्परा प्राप्त ही है । कवि ने सत्याणुव्रती के लिये विवेकपूर्वक भाषण करने पर जोर दिया है। वह हित, मित एवं यथार्थ वचनों को ही इस व्रत में परिगणित करता है । (10 / 6) अचौर्याणुव्रत के अन्तर्गत अदत्त वस्तुओं के ग्रहण का परित्याग बताया गया है । ब्रह्मचर्याणुव्रत में परस्त्रियों को बहिन, माता और सुता के समान समझने पर जोर दिया गया है । कवि कहते हैं कि चेतन-अचेतन सभी प्रकार की स्त्रियों का त्याग अवश्य है । दासी, वेश्या आदि के प्रति आसक्ति भी ब्रह्मचर्याणुव्रती के लिए सर्वथा वर्जित है। परिग्रह- परिमाणुव्रत में अंतरंग मूर्च्छा के त्याग पर जोर दिया गया है। कवि ने धन-धान्य, सोना-चाँदी आदि दसों प्रकार के परिग्रह का त्याग अनिवार्य बताया है। (10/6) 1. इसी प्रकार कवि ने तीन गुणव्रतों एवं चार शिक्षाव्रतों (10 / 6-7 ) का भी संक्षिप्त विवेचन किया है। अनर्थदण्डव्रत में पापोपदेश आदि पाँचों का त्याग आवश्यक बताया है। सामायिक, प्रोषधोपवास और अतिथि संविभाग व्रतों का वर्णन भी बड़ा सुन्दर किया है। इसके बाद कवि ने रात्रिभोजन त्याग को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया है, जलगालन, सप्तव्यसन-त्याग एवं द्वादश- अनुप्रेक्षाओं आदि का विशद एवं सरस विवेचन किया है। आचार एवं तत्व-दर्शन के साथ-साथ सृष्टि-विद्या के वर्णन में ही धर्म- सिद्धांत की पूर्णता मानी जाती है। यतः लोक-संस्थान, लोक-विस्तार, लोकाकृति तथा इस पृथ्वी पर सन्निविष्ट द्वीप, सागर, कुलाचल, नदियों आदि का विवेचन भी अत्यावश्यक है' । जब तक कोई भी धर्म - जिज्ञासु इस लोक की रचना के संबंध में अपनी जिज्ञासा की तृप्ति नहीं कर लेता तब तक उसकी धर्म-धारणा की ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती । महाकवि बुध श्रीधर ने आचार्य नेमिचंद्र सिद्धांत-चक्रवर्ती के त्रिलोकसार एवं जिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराण के आधार पर लोक-विवेचन किया है। तात्विक दृष्टि से इस लोक-वर्णन में कोई भी नवीनता नहीं है। कवि ने परंपरा-प्राप्त तथ्यों और मान्यताओं को अपनी शैली में प्रस्तुत किया है। अन्त में कवि ने क्षपक श्रेणी द्वारा कर्मक्षय की प्रक्रिया विस्तारपूर्वक प्रस्तुत की है। इस प्रक्रिया का आधार आचार्य पूज्यपाद कृत 'सर्वार्थसिद्धि' नामक ग्रन्थ है। इसके लिए नौवीं दसवीं सन्धियाँ देखिये । 62 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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