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________________ ही तीर्थंकर या देवत्व की चहारदीवारी से नहीं घेरा है। अतः इस संवाद में जहाँ पिता-पुत्र के वात्सल्य की संयमित धारा प्रवाहित हो रही है, वहाँ नायक के चरित का वीर्य और पौरुष भी झाँकता हुआ दिखाई पड़ रहा है। अतएव यह संवाद मर्मस्पर्शी एवं रसोत्कर्षक है। तीसरा संवाद तापस और कुमार पार्श्व के बीच सम्पन्न हुआ है। इस संवाद में बताया गया है कि कुशस्थल को शत्रुओं से खाली कराकर और रविकीर्ति के शत्रु यवनराज को परास्त कर जब पार्श्व वहाँ कुछ दिन तक रह जाते हैं, तो वे एक दिन अपने मामा रविकीर्ति के साथ भ्रमण करते हुए भीम-वन में पहुँचते हैं। वहाँ वे देखते हैं कि एक तापस पंचाग्नि- तप कर रहा है, तो उन्हें उसकी अज्ञानता पर दया उत्पन्न हो जाती है और वे द्रवीभूत हो उसे समझाने लगते हैं- "हे तपस्विन्, तुम्हारा यह अज्ञानतापूर्ण तप संसारवर्धक है .... आदि-आदि । " पार्श्व के इस कथन को सुनकर तपस्वी क्रोधाभिभूत हो जाता है और कहने लगता है - "अरे, तुम मेरे इस तप को किस प्रकार अज्ञानतापूर्ण कह रहे हो ? मैं कितना घोर कष्ट सहन कर बैकुण्ठ-प्राप्ति के लिए यह साधना कर रहा हूँ।" तपस्वी के इन वचनों को सुनकर, पार्श्वनाथ ने पुनः कहा- "महानुभाव, आप जो तपश्चरण कर रहे हैं, वह निश्चय ही अज्ञानतापूर्वक किया जा रहा है। अग्निकुण्ड में जिस काष्ठ को जलाया जा रहा है, उस काष्ठ के भीतर एक नाग और नागिनी वर्तमान है। ये दोनों प्राणी अब तुम्हारी इस तपाग्नि में भस्म होना ही चाहते हैं । यदि मेरी बातों का विश्वास न हो, तो इस काष्ठ को बीच से काटकर देखो, नाग और नागिनी अर्धदग्ध प्राप्त हो जावेंगे।" पार्श्वनाथ के इन उत्तेजनापूर्ण वचनों को सुनकर काष्ठ को बीच से छिन्न-भिन्न किया गया, तो उसमें से सचमुच ही छिन्न- भिन्न नाग-नागिनी निकल आये' । इस संवाद से निम्नलिखित तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है जैन- सिद्धान्त की मान्यता है कि तीर्थंकर छद्मस्थावस्था में किसी को उपदेश नहीं देते। जब उन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तभी उनका धर्मोपदेश आरम्भ होता है। पार्श्वनाथ ने छद्मस्थावस्था में ही तापस को सम्बोधित किया है। यद्यपि महाकवि ने इस सन्दर्भांश को परम्परा से ही ग्रहण किया है, क्योंकि संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के कवियों ने इस घटना को इसी रूप में सर्वत्र निबद्ध किया है। हाँ, यह सत्य है कि कथानक को जटिल करने की शैली सभी की भिन्न- भिन्न है। पता नहीं, आगमिक - परम्परा का यत्किचित् उल्लंघन यहाँ किस प्रकार हुआ है ? अन्तरतल में प्रवेश करने पर हमें ऐसा प्रतीत होता है कि मित्र सम्मत उपदेश सम्भवतः छद्मस्थावस्था में भी दिया जा सकता है। अतः हम इसे उपदेश न मानकर मात्र एक हितैषी - मित्र की सम्मति ही मानें, तो अधिक उचित होगा । चौथा संवाद मरुभूति एवं राजा अरविन्द के बीच सम्पन्न हुआ है। कमठ जब मरुभूति की पत्नी के साथ दुराचार करता है, तो न्याय-परायण राजा अरविन्द वास्तविक परिस्थिति की जानकारी मरुभूति से प्राप्त करता है। इस प्रसंग में उन दोनों के बीच हुआ वार्त्तालाप बहुत ही मर्यादित है । मरुभूति के कथनोपकथन में भ्रातृ-वात्सल्य अधिक टपकता है। यद्यपि दुराचारी कमठ के कारण उसके कुल में कलंक लग रहा है, तो भी वह स्नेहवश अपने भाई की रक्षा करना चाहता है। इस प्रसंग में मरुभूति का वार्त्तालाप स्नेह से आप्लावित है । अतः इस संवाद द्वारा महाकवि ने निम्न तथ्यों की अभिव्यंजना की है- (1) निश्छल और निष्कपट मरुभूति के व्यवहार द्वारा सभी जन्मों में नायक के चरित का उदात्तीकरण । 1. 2. 3. पासणाह 6/9 पासणाह. 6/9 पासणाह 11/11-12 प्रस्तावना :: 53
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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