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________________ जिनालय की शास्त्रीयता एवं कलात्मकता तिलोयपण्णत्ती ( यतिवृषभ-दूसरी सदी के आसपास) के अनुसार जैन मन्दिर की शास्त्रीय संरचना में मन्दिर की चारों दिशाओं में एक-एक वेदिका तथा उसके बहिर्भाग में अशोक, सप्तपर्णी, चम्पक तथा आम्र के उपवन होते हैं। इनमें चैत्यवृक्ष भी होते हैं। इन चैत्यवृक्षों के चारों ओर कलात्मक तोरण, अष्टमंगल तथा मानस्तम्भ के ऊपर चतुर्मुखी चार-चार जिन-प्रतिमाएँ सुशोभित रहती हैं। वह जिनालय तीन प्राकारों (कोटों) के मध्य निर्मित रहता है। प्रत्येक प्राकार की चारो दिशाओं में एक-एक गोपुर-द्वार रहता है। इन प्राकारों की मध्यवर्ती गलियों में एक-एक मानस्तम्भ, नौ-नौ स्तूप, वन, ध्वजा-पताकाएँ और चैत्य होते हैं। उनके चारों ओर उपवन, मेखलाऍ एवं वापिकाएँ होती हैं। महाध्वजाओं में माला, सिंह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, अम्बर, हंस, कमल और चक्र के चिन्ह निर्मित रहते हैं । उक्त विषयक वर्णन बड़ा विस्तृत है किन्तु यहाँ पर चूँकि 'गयणमंडलालग्गु सालु' का प्रसंग है, अतः केवल इसी विषय पर यहाँ चर्चा की जा रही है। उक्त जिनालय के निर्माण में भक्ति-भरित नट्टल साहू ने शास्त्रीय पद्धति का ध्यान रखते हुए एक उत्तुंग मानस्तम्भ का भी निर्माण अवश्य कराया होगा क्योंकि उसके पास न तो भूमि की कमी थी और न अर्थ या अन्य साधनों की । उसी मानस्तम्भ की उत्तुंगता, कलात्मकता एवं भव्यता को देखकर ही कवि ने उसे "गयणमंडलालग्गु सालु" कहा होगा। उसके लिए प्रेरक सूत्र वस्तुतः 7वीं सदी से 14वीं सदी तक का कालखण्ड दक्षिण एवं उत्तर भारत में कलापूर्ण जिनालयों के निर्माण के लिये एक स्वर्णयुग ही था। विषय-विस्तार के भय के कारण यदि यहाँ दक्षिण भारत के कलापूर्ण भव्य मन्दिरों एवं मूर्त्तियों की चर्चा न भी करें, तो भी उत्तर भारत के माउण्ट आबू में नट्टल काल के निकट अतीत में ही सन् 1030 ई. में विमलशाह द्वारा 18 करोड़ 53 लाख मुद्राओं के व्यय से 52 लघु जिनालयों के मध्य एक विमल - वसही के नाम से प्रसिद्ध उत्तुंग शिखर वाले कलापूर्ण नाभेय (ऋषभ ) जिनालय का निर्माण कराया जा चुका था । उसके लगभग 200 वर्षों के पश्चात् वस्तुपाल- तेजपाल ने भी सन् 1230 ई. में कलापूर्ण विस्तृत जिनालय का निर्माण कराया था, जिसमें लगभग 12 करोड़ 53 लाख मुद्राओं का व्यय किया गया और जो णूवसही के नाम से प्रसिद्ध है । इनका निर्माण 700 कुशल कारीगरों ने किया था । पश्चाद्वर्त्ती राणकपुर में भी उसी प्रकार के कलावैभव से सम्पन्न जिनालयों के निर्माण की रूपरेखा तैयार की जा रही थी । उक्त कालखण्ड में बुन्देलखण्ड के देवगढ़, खुजराहो एवं अहार ( टीकमगढ़, मध्यप्रदेश) में भी कलावैभव से सम्पन्न जिनालयों के निर्माण की होड़ जैसी लगी थी और निर्माताओं से प्रेरित एवं उत्साहित होकर सिद्धहस्त कारीगरों ने भी जब दर्शकों को विस्मित कर देने वाले कला- पुंज को बिखेरा था, तब फिर भला नट्टल साहू उनसे पीछे क्यों रहते ? अतः उन्होंने भी सम्भवतः विमलवसही के निर्माण से प्रेरणा लेकर वैसे ही विशाल प्रांगण में 52 कलापूर्ण जिनमन्दिरों के मध्य विशाल नाभेय (ऋषभ) मन्दिर का निर्माण कराया था और समकालीन सुरुचिसम्पन्न परम्परा के अनुसार विशाल प्रांगण वाले उस मन्दिर में मूल गर्भगृह, गूढ़-मण्डप, नव-चौकी, रंगमण्डप, द्वारमण्डप, खटक, चतुर्दिक विस्तृत दीवारों के साथ-साथ छोटे-छोटे मन्दिर (कुलिकाएँ) और हस्तिशाला आदि अवश्य ही निर्मित कराई गई होंगी। दीवालों, द्वारों, खम्भों, मण्डपों, तोरणों तथा छतों पर आकर्षक फूल-पत्तियाँ, लताएँ, ज्ञान के प्रतीक दीपक, घण्टे घण्टियॉ, अश्व, गज, सिंह, मत्स्य एवं देवाकृतियों से उन्हें अवश्य ही सुसज्जित कराया गया होगा । खम्भों एवं उनके मध्यवर्ती शिलापट्टों पर आगम-परम्परानुसार ही अनेक जैन- सूत्र एवं सूक्तियों के भी अंकन एवं देवों, यक्ष-यक्षिणियों तथा शलाका - महापुरुषों के चित्र भी चित्रित कराये गये होंगे। इनके अतिरिक्त भी तीर्थंकर से सम्बन्धित दीक्षापूर्व के दृश्य, राज दरबार, जुलूस, बारात गमन, विवाह मण्डप, प्रस्तावना :: 43
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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