SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दंडाहउरिउ - अग्गए करेवि गोवालु व गोहणु चालंतर । अर्थात् दण्डाहत-पराजित शत्रुओं को वह आगे-आगे कर उसी प्रकार हाँकता था, जिस प्रकार कि ग्वाले अपनी गायों को । उक्त प्रसंग में कवि ने साम्प्रदायिक मोह न दिखाकर तथ्यपरक, लौकिक एवं उनके राष्ट्रीय रूप को प्रदर्शित किया है। आश्रयदाता नट्टल साहू जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है कि प्रस्तुत रचना की आद्य - प्रशस्ति के अनुसार कवि अपने अपभ्रंश भाषात्मक 'चंदप्पहचरिउ' की रचना - समाप्ति के बाद कार्यव्यस्त असंख्य ग्रामों वाले हरयाणा प्रदेश से चलकर जब यमुना पार दिल्ली आया, तब वहाँ उसकी सर्वप्रथम भेंट राजा अनंगपाल (तृतीय) के एक सभासद (अथवा मन्त्री) साहू अल्हण से हुई। परिचयानन्तर साहू अल्हण सम्भवतः "चंदप्पहचरिउ" का सस्वर पाठ सुनकर कवि से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसे नगर के महान् साहित्य- रसिक एवं प्रमुख सार्थवाह साहू नट्टल से भेंट करने का आग्रह किया, किन्तु कवि बड़ा संकोची था । अतः उनसे भेंट करने की अनिच्छा प्रकट करते उसने कहा कि "हे साहू संसार में दुर्जनों की कमी नहीं, वे कूट-कपट को ही विद्वत्ता मानते हैं, सज्जनों से ईर्ष्या एवं विद्वेष रखते हैं तथा उनके सद्गुणों की उपेक्षा कर वे उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं। वे उन्हें कभी तो मारते हैं और कभी टेढ़ी-मेढ़ी भौंहे दिखाते हैं अथवा कभी वे उनका हाथ, पैर अथवा सिर तक तोड़ देते हैं । किन्तु मैं ठहरा सीधा, सादा, सरल-स्वभावी अतः मैं किसी सेठ के घर जाकर उससे नहीं मिलना चाहता "" । किन्तु अल्हण साहू द्वारा नट्टल की भद्रता के प्रति पूर्ण विश्वास दिलाने एवं बार-बार आग्रह करने पर कवि जब साहू नट्टल के घर पहुँचा, तो वह उसके मधुर व्यवहार से बड़ा ही सन्तुष्ट हुआ । नट्टल ने प्रमुदित होकर कवि को स्वयं ही आसन पर बैठाया और उसे सम्मान सूचक ताम्बूल प्रदान किया। उस समय नट्टल एवं श्रीधर दोनों के मन में एक साथ एक ही जैसी भावना उदित हो रही थी। वे परस्पर में सोच रहे थे कि— 1. अर्थात् "हमने पूर्वभव में ऐसा कोई सुकृत अवश्य किया था, जिसका कि आज हमें उसका मधुर फल साक्षात् मिल रहा है। " कुछेक क्षणों के बाद साहू नट्टल के द्वारा आगमन - प्रयोजन पूछे जाने पर कवि ने उत्तर में कहा - "मैं अल्हण साहू के अनुरोध से ही आपके पास आया हूँ। उन्होंने मुझसे आपके अतिशय गुणों की चर्चा की है और बताया है कि आपने ढिल्ली में एक उत्तुंग कलापूर्ण नाभेय (आदिनाथ) मन्दिर का निर्माण कराकर उस पर पंचरंगे झण्डे को भी फहराया हैं । आपने जिस प्रकार उस भव्य मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई है, उसी प्रकार मुझसे 'पासणाहचरिउ' का प्रणयन करवाकर उसे भी प्रतिष्ठित कराइए, जिससे कि आपको पूर्ण सुख-समृद्धि प्राप्त हो सके तथा कालान्तर जो मोक्ष प्राप्ति का भी कारण बन सके। इसके साथ-साथ आप चन्द्रप्रभ स्वामी की एक मूर्ति भी अपने पिता के नाम से उस मन्दिर में प्रतिष्ठित कराइए। "2 नट्टल अपने मन की मुराद पूरी होती देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ । अतः उसने भी कवि के लिए अत्यावश्यक 2. जं पुव्व जम्मि पविरइउ किं पि । इह विहिवसेण परिणवइ तंपि ।। ( 1/8 / 9) दे. पास. 1/7/1-8 पास. अन्त्य प्रशस्ति 3 34 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy