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________________ खेड-7/1/17 मंडव-7/1/17 आराम-7/1/17 मध्य माना है (कौ.अर्थ. 17/1/3)। सामरिक दृष्टि से खर्वट को विशेष महत्त्व का स्थल माना जाता था। महाकवि देवीदास के अनुसार एक चक्रवर्ती सम्राट के अधिकार में इस प्रकार के 24000 खर्वट रहते थे- देवीदास विलास, 3/4/3)। आचार्य जिनसेन (आदिपुराण 16/171) के अनुसार नदी एवं पर्वत से घिरे हुए स्थल को खेड कहा जाता था। समरांगण-सूत्र के अनुसार ग्राम एवं नगर के बीच वाला स्थल खेड कहलाता था अर्थात् वह नगर की अपेक्षा छोटा एवं ग्राम की अपेक्षा कुछ बड़ा होता था। ब्रह्माण्ड-पुराणानुसार (10/104) नगर से एक योजन की दूरी पर खेड का निवेश अभीष्ट माना जाता था। बृहत्कल्पसूत्र (भाग 2/1089) के अनुसार जिस स्थल के चारों ओर से धूलि का परकोटा हो अथवा जो चारों ओर से गर्द-गुवार से भरा हुआ हो, उसे खेड या खेट कहा गया है। यह स्थल कृषि-प्रधान माना जाता था। प्राचीन जैन साहित्य के अनुसार मडंव एक प्रधान व्यापारिक केन्द्र के रूप में जाना जाता था। आचार्य जिनसेन के अनुसार वह 500 ग्रामों के मध्य व्यापारिक केन्द्र होता था। (आदिपुराण 16/176) आचारांग सूत्र (1/8, 6/3) के अनुसार मडंव उसे कहा जाता था, जिसके अढाई कोस या एक योजन तक कोई गाँव नहीं रहता था। महाकवि देवीदास के अनुसार एक चक्रवर्ती सम्राट् के अधिकार में ऐसे-ऐसे चार हजार मडंब रहते थे। आराम का अर्थ वाटिका है अर्थात् ऐसा प्रदेश, जो वाटिकाओं से हरा-भरा एवं समृद्ध रहता था। आदिपराण (16/175) के अनसार द्रोणमख एक व्यावसायिक केन्द्र के रूप में मान्यता प्राप्त था, जो 400 ग्रामों के मध्य रहता था तथा उनकी प्रायः सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। महाकवि देवीदास के अनुसार उसे समुद्र का तटवर्ती प्रदेश माना जाता था (देवीदास-विलास 3/4/4) जब कि शिल्प-रत्न के अनुसार उसे बन्दरगाह माना जाता था। एक चक्रवर्ती सम्राट् के अधिकार में ऐसे-ऐसे एक लाख द्रोणमुख रहते थे (देवीदास 3/4/5)। महाकवि देवीदास (3/4/5) के अनुसार यह एक ऐसा अति सुरक्षित स्थल था, जो शत्रु के लिये दुष्प्रवेश्य था। चक्रवर्ती सम्राट् के अधिकार में ऐसे-ऐसे 14 सहस्र संवाहन रहते थे, जिनमें 28 सहस्र सुदृढ़ दुर्ग बने होते थे। आचार्य जिनसेन के अनुसार संवाहन की भूमि बड़ी उपजाऊ होती है, जिसमें मस्तक पर्यन्त ऊँचे-ऊँचे धान्य के पौधे लहराते रहते थे (आदिपुराण 16/175)। -समस्त संसारी-जीवों को संक्षेप में बतलाने की पद्धति को 'जीवसमास' कहा गया है। ये 14 प्रकार के होते हैं। इसकी विशेष चर्चा के लिये देखियेगोम्मटसार-जीवकाण्ड गाथा 72-73 । मूलाचार (वट्टकेर, 12/154-55) के अनुसार मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम तथा त्रियोगों के कारण जीव के जो भाव बनते हैं, उनको दोणामुह (द्रोणमुख)-7/1/17 संवाहन-7/1/17 चउदह जीव समास-7/1/15 चउदह गुण-ठाण (चतुर्दश गुणस्थान)-7/1/17 पासणाहचरिउ :: 275
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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