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इंदोक्ख (इन्द्रवृक्ष) - 11/3/4
पंचत्थिकाय (पंचास्तिकाय) - 10/6/8 जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन्हें जैन सिद्धान्त के अनुसार पाँच अस्तिकाय माना गया है। क्योंकि ये निरन्तर विद्यमान रहते हैं तथा शरीर के समान ही बहुप्रदेशी हैं। (देखें पंचास्तिकायसार गाथा 4-5 ) ।
इस नाम का असुर, जिसने पूर्वजन्म के बैर के कारण पार्श्व पर भीषण उपसर्ग किये थे । उत्तरपुराणकार ( 73 /136) ने इसका नाम शम्बर तथा वादिराज (पार्श्वनाथ चरितकार) (11/58) ने भूतानन्द बतलाया है।
मेहमल्लि (मेघमालिन्)-6/10/4
इंडरिय- 4/2/16
विहंगुणाणु (विभंग ज्ञान)-7/5/5
आसीवसु (आशीविषः)-3/4/12
कंदुव-घरु-4/2/16 ( हलवाई की दूकान ) पउमावइ-पद्मावती-8/3/6
माणथंभ (मानस्तम्भ)-9/14/9
णट्टसाल (नाट्यशाला)-8/8/15
अर्जुन वृक्ष। अमरकोष (2/4/45) में इसे इन्द्रद्रुः कहा गया है, जो इन्द्रद्रुम का पर्यायवाची है। इसकी छाल का काढा श्वास, काश एवं ज्वर की अक्सीर दवा माना गया है।
बारह थाणतर- 8/8/4 (द्वादश स्थानान्तर)
इनरसा एक प्रकार का मिष्ठान्न है, जो मैदे में गुड़ मिलाकर गोल-गोल टिकिया बनाकर घी में छाना जाता है तथा बाद में उस पर खसखस दाना चिपका दिया जाता है। इसका सरा अर्थ इडली ( दाक्षिणात्य - पक्वान्न) भी हो सकता है। युवराज पार्श्व के सैनिक अपने विश्राम - काल में इसे बड़े चाव से खा रहे थे।
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अर्थात् कुमति, कुश्रुति एवं कुअवधि रूप तीन प्रकार के कुज्ञानों में से एक अर्थात् कुअवधिज्ञान को विभंग ज्ञान कहा गया है।
जिसके दाँतों में विष रहता है, अर्थात् सर्प ।
पार्श्व की सेना के लोग, युद्ध-मार्ग में जब विश्राम कर रहे थे, तभी गर्म-गर्म मिठाई की खुशबू पाकर वे उसकी दूकान की ओर दौड़ दौड़कर जा रहे थे । भगवान् पार्श्वनाथ की शासनदेवी । जैनाचार्यों के मतानुसार इस देवी का वर्ण स्वर्ण जैसा है। उसके चारों हाथों में से दाहिने वाले दो हाथों में पद्म एवं पाश तथा बाकी बायें वाले दो हाथों में क्रमशः फल एवं अंकुश है। इसका वाहन सर्प माना गया है।
तिलोयपण्णत्ती (4/776) के अनुसार समवशरण में तीनों कोटों के बाहिर चारों दिशाओं में तथा पीठों के ऊपर मानस्तम्भों का निर्माण किया जाता है । इनका नाम मानस्तम्भ इसीलिये कहा गया है क्योंकि इनके दर्शन करते ही मिथ्यात्वी अहंकारी व्यक्ति का मान गलित हो जाता है। पार्श्वनाथ के मानस्तम्भों का बाहल्य 2495/24 धनुष प्रमाण था ।
यह एक पारिभाषिक शब्द है। समवशरण के मध्य प्रथम बीथियों, पृथक्पृथक् बीथियों के दोनों पार्श्व भागों तथा सभी वनों के आश्रित समस्त बींथियों के दोनों पार्श्व-भागों में दो-दो नाट्यशालाएँ होती हैं, जिनमें भवनवासी एवं कल्पवासी स्वर्गों की देवकन्याएँ नृत्य किया करती I समवशरण बारह कोठों में विभक्त रहता है जिनमें निम्न प्रकार के जीव अपनेअपने लिये सुनिश्चित कोठे में इस प्रकार बैठते हैं- (1) गणधर - प्रमुख, (2) कल्पवासी देवों की देवियाँ, (3) आर्यिकाएँ एवं श्राविकाएँ, (4) ज्योतिष्क- देवों
पासणाहचरिउ :: 271