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________________ 5 10 बारहवीं संधी 12/1 Ašanighosa the royal elephant listens with rept attention about its previous life from the great ascetic Aravinda. घत्ता— इत्थंतरि करिवरु चूरिय-तरुवरु असणिघोसु गज्जंतउ । कमलहिँ सरु खंडिवि सत्थु विहंडिवि जहिँ मुणि तहिँ संपत्तउ ।। छ।। गिरिंदुव्व विद्धत्थकुंभीसणाहं । । जिणाणं गुणा मच्चुणो भीहरंतो ।। स-बाहू पलंवेवि णासा- णियंतो ।। हाणं जाता करिंदो घणाहो ।। विचिंतेइ चित्ते मयंगो अमेयं । । इमं कित्थु दिट्ठो गुणेहिं गरिट्ठो ।। पपइ ता झत्ति णिग्गंथ साहो ।। णिओ पोयणाही संदिण्ण-चाओ ।। हुआ भव्व लोयणाणंदो मुणिंदो || असे सिंदु-संकास चित्तेण जुत्तो ।। णिएऊण तं मत्तमायंगणाहं मुणिंदो थिओ माणसे संभरंतो णिउब्मो थिरो अट्टरुदं चयंतो थिओ धम्मझाणेण णिग्गंथणाहो पलोएवि णिग्गंथ देहस्स तेयं पुरा आसि एसो मुणीणं वरिट्ठो मणे एम जा चिंतए हत्थि णाहो अहो भो गयाहीस हं भुत्त-राओ जयं जाणिऊणं अणिच्चं अणिंदो तुमं भणो विस्सभूइस्स पुत्तो घत्ता - मरुभूइ पसिद्धउ लच्छि समिद्धउ होंतउ महु उवरोहिय । तु तरुणि हरतें अउ करेंतें तुहु कमठेण विरोहिउ || 210 ।। 12/1 गजराज अशनिघोष मुनीन्द्र - अरविन्द से एकाग्रभावपूर्वक अपना पूर्वभव सुनता है इसी बीच वह गज-प्रवर अशनिघोष, वृक्षों को चूर-चूर करता हुआ, गर्जना करता हुआ, सरोवरों के कमलों को (अथवा कमल-सरोवरों को) खण्डित करता हुआ तथा सार्थवाहों के संघ को विघटित करता हुआ वहाँ आ पहुँचा, जहाँ मुनीन्द्र अरविन्द विराजमान थे । । छ । । पर्वतराज के समान गजों के गण्डस्थलों को विध्वस्त करने वाले उस मत्तमातंग को देखकर, मृत्यु के भय को न लाते हुए जिनेन्द्र के गुणों का मन ही मन स्मरण करते हुए वे मुनीन्द्र, गिरीन्द्र के समान वहीं स्थिर हो गये । काम-विजेता वे निर्गन्थ नाथ मुनीन्द्र कार्योत्सर्ग-मुद्रा में होकर दोनों भुजाएँ लटकाए हुए, नासाग्र पर दृष्टि लगाये, आर्त्त- रौद्र ध्यान का परित्याग करके ज्यों ही धर्मध्यान में स्थित हुए, त्यों ही मेघ के समान श्याम वर्ण वाला वह करीन्द्र, काम-विनाशक उन मुनीन्द्र के अपरिमेय-तेज को देखकर अपने मन में विचार करने लगा - मुनियों में वरिष्ठ एवं गुणों से गरिष्ठ इन मुनीन्द्र को मैंने पहिले कभी कहीं देखा था। जब वह गजराज अपने मन में यह विचार कर ही रहा था कि तत्काल की उन निर्ग्रन्थ साधु ने उससे कहाअरे हे गजाधीश, मैं पोदनपुराधीश राजा अरविन्द हूँ । अपना राज्यभोग करने के बाद मैंने उसका त्याग कर दिया है, जग की अनित्यता जानकर मैंने भव्य लोगों को आनन्दित कर देने वाला अनिन्द्य मुनि-पद धारण कर लिया है। तुम ब्राह्मण हो, विश्वभूति के पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान निर्मल चित्त वाले घत्ता- लक्ष्मी से समृद्ध मरुभूति नाम से प्रसिद्ध मेरे राज पुरोहित थे । तुम्हारी तरुणी भार्या का अपहरण कर तुम्हारे भाई कमठ ने अन्याय पूर्वक तुम्हारा वध कर दिया था - ।। 210 11 पासणाहचरिउ :: 243
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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