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________________ पत्ता- दिव्वंवर देविणु तूर हणेविणु सिंहासणि वइसारहु । हउँ जामि तओ वणु परिउज्झिय जणु मेरउ कज्जु मणोरहु ।। 198।। 11/15 Description of previous births of King Aravinda. The different pains and troubles of four forms of existence of life (Gatis) इय चल्लंतहो धरणीसरासु विद्धंसिय मयरद्धय-सरासु।। संजायउ तक्खणि अवणिहाणु णिय तेओहामिय तरुण-भाणु।। कालत्तउ णिरु जाणियइ जेम णिय पुव्व-जम्मु जाणियउ तेम।। उप्पणउ जइयहँ णरयवासि णारइय दिण्ण दुह सयसहासि।। तइयहँ जं वि सहिउ तिब्बू दुक्खु तं जइ परमक्खइ मुणि मुमुक्खु।। तत्थहो णिग्गउ कम्महो वसेण तिरियत्तणु पत्तउ सरहसेण।। तत्थवि दुक्खहँ लक्खइँ सहेवि अवरुप्परु खरणहरहिँ वहेवि।। कहविहु मणुअत्तण-गइ पवण्णु तहिँ मोहमहण्णवि णिरु णिमण्णु।। मे घरु मे परियणु मे जणेरु मे भायरु मे सुहि सुह-जणेरु ।। 10 मे मे पभणते तहिर्मिं वप्प विसहिय दुहसय अणप्प।। घत्ता- मणुअत्तु मुएविणु सुरु होएविणु अइयहु हउँ उप्पण्णउ । तइयह पच्चक्खें माणस-दुक्खें अणवरउ जि अदण्णउ।। 199|| घत्ता- दिव्य वस्त्र प्रदान कर, तूर्यादि वाद्यों को बजाकर, राज्यसिंहासन पर प्रतिष्ठित कर, मेरा मनोरथ पूर्ण करो, जिससे कि मैं समस्त परिजनों का मोह-त्यागकर तपस्या हेतु वन में जा सकूँ।। 198)) 11/15 राजा अरविन्द के पूर्वभव : चतुर्गति-दुख-वर्णन इस प्रकार दीक्षा के लिये उत्सुक मकरध्वज-कामदेव के वाणों का विध्वंसक वह राजा अरविन्द जब वन की ओर चलने लगा, तभी उसे तत्क्षण ही अपने तेज से तरुण-सूर्य को भी निस्तेज कर देने वाला अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। इस ज्ञान के द्वारा उसने तीनों कालों (वर्तमान, भूत, भविष्य) को जान लिया, साथ ही उसने अपने ज्ञानबल द्वारा अपने पूर्वजन्मों को भी जान लिया। उसने जाना कि जब मैं नरक में उत्पन्न हुआ था, उस समय नारकियों द्वारा मुझे सैकड़ों हजारों प्रकार के भीषण कष्ट दिये गये थे। उस समय मैंने जो-जो असह्य दुख सहे थे, उनका वर्णन केवल यति, मुमुक्षु या मुनि ही कर सकते हैं। कर्मवशात वहाँ से निकल कर हर्षित होकर तिर्यंचगति को प्राप्त की। तब परस्पर में प्रखर-नखों द्वारा वध करकराकर वहाँ भी लाखों प्रकार के दुख सहे। जिस किसी प्रकार मैंने जब मनुष्यगति प्राप्त की, तो उसमें भी मैं निश्चय ही मोह रूपी महासमुद्र में निमग्न हो गया। यह मेरा घर है, ये मेरे परिजन हैं, ये मेरे माता-पिता हैं, ये मेरे भाई हैं, और ये सुखोत्पादक मेरे मित्रगण हैं। इस प्रकार मेरा-मेरा कहते हुए बाप रे बाप उस मनुष्य गति में भी मैंने अगणित दुस्सह दुख सहे। घत्ता- मनुष्य-पर्याय छोड़कर देवगति प्राप्त कर जब मैं वहाँ उत्पन्न हुआ, तभी से प्रत्यक्ष ही मानसिक क्लेशों से अनवरत आकुल-व्याकुल बना रहा।। 199 ।। पासणाहचरिउ :: 231
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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