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________________ 5 10 10/5 Preachings on Srāvaka-Dharma continues. Non-violance is the best precept. एउ मुणेवि जिणागम परम-धम्मु दयमूलु जासु पयणिय सुहासु दयसहिउ थोडो वि धम्मु उद्दिसिवि देउ जइ जीवघाउ किं विसमीसिउ गुडु-गसिउ वप्प उ मुणेवि विउज्झिवि हिंसभाउ करुणबिणु यिमु वि मूलु जाइ सम्मत्तु पढमु मणे थिरु करेवि वज्जियइ दूरि महु-मज्झ-मंसु तह भक्खणि पंचुंबरफलाहँ कुरु महिवइ णिरसहि असुह-कम्मु ।। णिम्मूलुम्मूलिय भव- दुमासु । । जो करइ तासु परिसहलु जम्मु ।। किज्जइ तहवि संभवइ पाउ ।। हिडइ ण पाण परणिय वियप्प । । कुरु सदउ धम्मु अइ साणुराउ ।। कहिबिणु मूलेण महीरुहु थाइ ।। मुणा व विहि अणुसरेवि । । णिव्वाण - सोक्ख संपत्ति भंसु ।। बहुजीव जोणि अइसंकुलाहँ । । घत्ता— कय तावइँ बहु पावइँ वसणइँ सत्तें वि उज्झहि । घरवासहो जमपासहो मा मोहेण विमुज्झहि ।। 170 ।। 10/5 ( श्रावक-धर्म-प्रवचन जारी ) अहिंसा ही परमधर्म है हे महीपति, यही परमधर्म जिनागम से जानकर (मनन पूर्वक) अपने आचरण में लाओ, अशुभ कर्म नष्ट करो, जिस परमधर्म का मूल दया है, जो परमधर्म सुख की अभिलाषा पूर्ण करने वाला है, जो संसार वृक्ष को जड़ से उखाड़ने वाला है, दयासहित जो भी इस परमधर्म को थोड़ा सा भी पालन करते हैं, उनका जन्म सभी प्रकार से (परि) सफल | देव को उद्देश्य बनाकर यदि जीव घात किया जाता है, तो उससे भी पाप होता है। विषमिश्रित गुड़ यदि खाया जाय, तो पापों में परिणत विकल्पसहित क्या वह प्राणों की हत्या नहीं करता? यह मानकर हिंस्य-भाव को छोड़कर अत्यन्त अनुराग पूर्वक दया-धर्म करो । करुणा के बिना मूल नियम भी चला जाता (नष्ट हो जाता) है। मूल के बिना क्या वृक्ष स्थिर रह सकता है? सर्व प्रथम मन में सम्यक्त्व को स्थिर करो । मुनिनाथ के वचनों की विधि का अनुसरण कर, मधु, मद्य एवं माँस का दूर से ही त्याग करो क्योंकि ये तीनों मकार गीर्वाण (स्वर्ग- देव) सुख की सम्पत्ति का भ्रंश कर डालते हैं। इसी प्रकार पांच उदुम्बर फलों का भक्षण भी महापाप है। क्योंकि ये पाँचों फल जीवों से प्रचुर मात्रा में भरे हुए रहते हैं। ( अतः उनका त्याग भी आवश्यक है ।) घत्ता — सन्तापकारी, विविध पापकारी सप्त-व्यसनों को भी छोड़ो। यह गृहवास यमदेव का पाश है। अतः इसके मोह से भी मोहित मत रहो ।। 170 ।। पासणाहचरिउ :: 201
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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