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________________ पणवेवि पयपंकय जुवलु परिसंठियमलेहिँ पुणु णिम्मिउ कोमलु विमलु विउलासणु कमलेहि।। छ।। तहिं णिरुवमि जिणणाह णिवेसिवि महुरक्खर वयणिहिँ थुइ भासिवि।। उच्छंगुप्परि चलण चडाविवि वइरि मणोरह सिरि विहडाविवि।। विप्फुरंत मणि किरण समिल्लउ सलबलंत बहु रसणालिल्लउ।। सत्तफणा मंडपु पविरइयउ विमलभालपटुप्परि धरियउ।। रक्खंतउ तणु जिणहो फणसुरु सुमरइ पोमावइ-रमणीसरु।। वम्माएवि सुह-गब्मसंभूए तियरणेण परिरक्खियभूए।। अहिकुले उप्पण्णहो कंपंतहो कण्णजाउ जं दिण्णू मरंतहो।। मज्झु विणासिय असुर आसिहो गलकंदलि णिवडिय जमपासिहो।। तेण पइउ फणिहुँ रमालउ णवसिरीससेलिंधसुमालउ।। तहो उवयारहो जो रिणु जायउ महियले सव्वयणहँ विक्खायउ।। तेणाकरिसिउ एत्थु परायउ अज्जु णिवारमि वइरि वरायउ।। दरिसमि भत्ति तिलोय-दिणिंदहो हयसेणंगय पास जिणिंदहो।। 15 पत्ता- जं-जं आयासहो जलू पडइ फणमंडबे लग्गेवि उप्पडइ। तं जाइ णिरत्थउ जिणहो कह संढहो तरुणियणकडक्खहो जह।। 135।। प्रभु के लिये विपुल दलों से विराजित कमलों के द्वारा एक कोमल, विमल और विशाल आसन का निर्माण कर दिया। (छ) उस निरुपम आसन पर जिन-नाथ को विराजमान कर मधुर अक्षरवाली स्तुति के वचनों को पढ़कर, उनके चरणों को अपनी गोदी पर चढ़ाया तथा इस प्रकार बैरी की मनोरथश्री को विघटित कर दिया। पुनः उसने विस्फुरित मणि की किरणों से झिलमिलाता हुआ, सल-बल करती हुई अनेक जीभों की लीला वाले सातफणों का एक मण्डप बनाया, फिर उसे अपने विमल भाल के ऊपर धारण किया। इस प्रकार पदमावती का वह पति फणीश्वर जिनेन्द्र के शरीर की रक्षा करता हुआ उन (पाव) का इस प्रकार स्मरण करने लगा ये वामा देवी के गर्भ से सम्भूत हैं। त्रिकरण (मन, वचन, काय) से सभी भूतों (प्राणियों) की रक्षा करने वाले हैं (अर्थात् रत्नत्रय से समस्त जीवों का उपकार करने वाले हैं) हम दोनों ही सर्प-कुल में उत्पन्न हुए थे। इन्हीं ने तड़प-तड़प कर मरते समय हमारे कान में जाप-मंत्र दिया था। मुझे मारने वाला भी यही असुर हुआ है। इसी ने पूर्वजन्म में मेरे गले पर यम की पाश रूपी कुल्हाड़ी चलाई थी। इसके मारने से, लक्ष्मी के स्थान स्वरूप नवीन ताजे शिरीष-पुष्प की शोभा वाला मैं फणीन्द्र हुआ हूँ। अतः इन (पाच) के उपकार का जो ऋण हमारे ऊपर है, वह (ऋण) महीतल में सर्वत्र विख्यात है। उसी ऋण से खिंचा हुआ मैं यहाँ आ पहुँचा हूँ। आज मैं उस बेचारे बैरी के बड़प्पन को धुन देता हूँ। हयसेन के अंगज पार्श्व-जिनेन्द्र, जो कि त्रिलोक के लिये सूर्य के समान हैं, मैं उनके प्रति अपनी भक्ति की महिमा को दिखला देता हूँ। घत्ता- उस समय आकाश से जैसे-जैसे जल वर्षा होती थी, वह जल फणमण्डल में लगकर उचट जाता था। वह (जल) जिनेन्द्र के ऊपर उसी प्रकार निरर्थक हो जाता था, जिस प्रकार किसी नपुंसक के सम्मुख तरुणीजनों के कटाक्ष निरर्थक हो जाते हैं।। 135 ।। 162 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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