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________________ केवि दुट्ठ कुप्पंति केवि पहु ण पावंति गयसत्ति हुअ जाम हय वइरि गावेण ण फुरंति ण चलंति चित्तेवि ण वडंति पक्खिहिँ झडप्पंति।। डसणत्थु धावंति।। णिप्फंदयिय ताम।। जिण तव पहावेण।। महिवीदु ण दलंति।। णवियाणणा ठंति।। पत्ता- जिणवरु परमेसरु भयरहिउ भीषण वणयर पियरहिँ सहिउ। णीसेस धराधर राउ जह पेक्खेवि णिक्कंपु सरीरु तह।। 128 ।। 7/15 When the demon King remained unsuccessful even after creating disturbances through ghosts he hopelessly started chewing his lips in fury. वत्थु-छन्द- ता सुरेसिण भीमवयणेण। थिरय वियणिय लोयणिणा कुविय मणिण वेयाल झाइया। दरिसंत माया विविह तहिं असेस तक्खणे पराइया।। रक्खस पण्णय गरुउ गह डाइणि साइणि भूअ। विंतर पेय पिसायवइ णं खयकालहो दूअ ।। छ।। को धुन रहे थे। कोई दुष्ट क्रोधित हो रहे थे, तो कोई-कोई अपने पंखों से झपटटा मार रहे थे। कोई-कोई प्रभ (पाव) को न पाकर डंसने के लिये दौड़ रहे थे। किन्त जिनेन्द्र के तप के प्रभाव से वे बेरी-समह (श्वापदगण) जब शक्ति विहीन एवं निष्क्रिय हो गये तब कोई न तो स्फरायमान रहा, न चंचल ही, और न धरती को रौंद ही रहे थे, वे चित्त में स्थित नहीं हो पा रहे थे। अतः नतमस्तक होकर वे निश्चल होकर ही रह गये। घत्ता- भीषण वन्य प्राणियों (श्वापदों) से घिरे रहने पर भी तथा उन्हें देखकर भी जिनेश्वर परमेश्वर पर्वतराज के समान निष्कम्प शरीर बने रहे। (128) 7/15 वैतालों द्वारा उपसर्ग कराये जाने पर भी जब असुराधिपति वह कमठ पूर्णतया असफल हो गया, तब क्रोधारक्त होकर वह अपना अधरोष्ठ चबाने लगावस्तु छन्द- तब भयंकर मुख वाले उस असुराधिप ने अपने नेत्रों को स्थिर कर, मन ही मन क्रोधित होकर, वैतालों का स्मरण किया। स्मरण करते ही अनेक प्रकार की मायाविनी विद्याओं वाले राक्षस, पन्नग, गरुड़, ग्रह, डाकिनी, शाकिनी, भूत, व्यन्तर, प्रेत एवं पिशाचपति जैसे बैताल तत्काल ही वहाँ आ पहुँचे। वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों प्रलयकाल के दूत ही हों 152 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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