SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5 10 15 6/14 Aggrieved on account of acceptance of asceticism by Prince Pārśwa, King Ravikirti has with a very heavy heart to return back alone to Kuśasthala. जा कुमारु दिक्ख थक्कु ता विवक्खु राणउ । सविण्णु भाणुकित्ति कण्णउज्ज राणउ ।। हा विहाय किं तया सचित्तेणाविवेइउ | ण णाणवंतु संतु झत्ति दिक्ख जोइउ ।। धत्थ- बुद्धि धिट्ठ छुद्द रज्ज - दूसणा । कट्ठ-कट्ठ सिद्ध-भट्ठ दुट्ठ- मग्ग भूसणा ।। सच्छरामरोह लद्ध संसु समरंगणे । जायरूव सेलंधीरु तोसियामरंगणे । । देव देउ मेल्लिऊण सत्तु को विहंजिही। चित्तहारि चाउरंग रायलच्छि रंजिही । । एम सोय माणुसोय जाय वेयणाउरो । मुच्छिऊण भूगओ हणंतु पाणिणा उरो ।। पाविऊण चंदणंबुसिंचिणं ससोसणं । उट्टिउ खणेक्कु अच्छिदेह पोसणं ।। भरंतु माणसंतरे गुणोहु सामिणो । दुक्खलक्ख खीण-गत्तु मोक्खमग्ग गामिणो ।। 6/14 कुमार पार्श्व के दीक्षित हो जाने के कारण शोकाकुल रविकीर्ति अकेले ही कुशस्थल लौटना पड़ता है जब कुमार पार्श्व दीक्षित हुए, तभी से कान्यकुब्ज (कन्नौज) का विपक्षी राजा भानुकीर्ति (रविकीर्ति) विषाद से भर गया और चिल्लाने लगा कि हाय पार्श्व, अपने चित्त से तूने ऐसा अविवेक पूर्ण कार्य कैसे कर डाला, जो हमें अकेला ही छोड़ गया । इतना समझदार होते हुए भी इतनी जल्दी दीक्षा कैसे ले ली ? तू ध्वस्त-बुद्धि, धृष्ट, क्षुद्र, राज्य को दूषित बनाने वाले, अतिकष्टकारक, शिष्टाचार से भ्रष्ट, दुष्ट मार्ग के भूषण जैसे लोगों को नष्ट कर डाला था । सुमेरु पर्वत के समान धीर-वीर, देव देवियों के लिये हर्षोत्पादक, समरांगण में अप्सराओं तथा देवों द्वारा प्रशंसा प्राप्त हे देव, तुम्हें छोड़कर अब ऐसा कौन है, जो मेरे शत्रुओं का भंजन करेगा ? चित्त का हरण करने वाली चतुरंग राज्यलक्ष्मी का अब रंजन कौन करेगा ? I इस प्रकार मन में शोक करता हुआ, शोकजनित वेदना से आतुर वह रविकीर्ति अपनी छाती पीटता हुआ मूर्च्छित होकर पृथिवी पर जा गिरा । देह को पोषक तत्व देने वाले चन्दन के जल से सिंचन और शीतल-वायु के सेवन से वह कुछ ही क्षणों में उठ बैठा और भव-दुखों के लक्ष्य से क्षीण गात्र, गुण-समृद्ध तथा मोक्षमार्ग- गामी स्वामी पार्श्व का वह अपने मन में स्मरण करने लगा। पासणाहचरिउ :: 127
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy