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________________ 5/15 Defeat of indefeatable Yavanrāja दुवइ- पडिवालेवि खणेक्कु पुणु उहिउ हरिणारि व समच्छरो। रण रोमंचकंचु अंचियतणु भीसणु णं सणिच्छरो।। छ।। दट्ठोट्ठ दुट्ठ करवालु लेंतु हक्कंतु ठंतु रिउ बलु दलंतु रुंधंतु वरंतु पुरउ सरंतु पहरंतु हरंतु पराउहाइँ हरिसंतु णहंगण देववग्गु आवंतु जउणु पेक्खेवि णिवेहिँ उग्गामिवि तडिदंड व किवाणु पवियारिउ सत्तु-समूह जाम तं तियस-घोसु आयण्णिऊण मण पवणु व तक्खणे पत्तु तेत्थु ता पेक्खेवि हयसेणंगएण पुणरवि कराल-करवाल-लट्ठि असि मेल्लिवि जउणणराहिवेण रिउ सम्मुहु तण्णय पयज्ञ किंतु ।। पयपंकएहिँ महियलु मलंतु।। दारंतु जंतु पहरणु सरंतु।। वग्गंतु लवंतु पराउहाइँ।। अच्छरगण परिवाडिउ समग्गु।। संरुद्धउ इच्छिय पहु सिवेहिँ।। चूरिउ रिउ-चाउ सतोणु वाणु।। णहयले किउ कलयल सरेहिँ ताम।। अप्पउ सलग्घु मणे मण्णिऊण।। तिहुअणवइ पासकुमारु जेत्थु।। असराल-सरहिँ सामंगएण।। तहो चूरिय दारिय वइरिरहि।। असिधेणु लइय मारुव जवेण।। 15 5/15 दुर्धर यवनराज की पराजयद्विपदी—ईर्ष्यालु वह (घायल-मूर्च्छित) यवनराज कुछ ही क्षणों के बाद सचेत होकर सिंह की भाँति पुनः उठ बैठा। रण-रस से रोमांचित शरीर वाला वह ऐसा भीषण लग रहा था, मानों शनिश्चर-ग्रह ही हो। अपने ओठों को काटता हुआ, तीक्ष्ण करवाल लेकर अपने रिपु-कुमार पार्श्व के सम्मुख वेग पूर्वक पग बढ़ाता हुआ, हाँक देता हुआ, ठहरता हुआ, शत्रुजनों का दलन करता हुआ, अपने पद-पंकजों से महीतल को रौंदता हुआ, रुकता हुआ, अपने को छिपाता हुआ, सम्मुख सरकता हुआ, शत्रुजनों को काटता हुआ, प्रहरणों का स्मरण करता हुआ, प्रहार करता हुआ, शत्रुओं के आयुधों को छीनता हुआ, उछल-कूद मचाता हुआ, शत्रुओं के आयुधों को निष्फल करता हुआ, नभांगण में अप्सराओं से घिरे हुए समग्र देव-समूह को हर्षित करता हुआ, जब वह दुष्ट यवनराज आ रहा था, तब उसे देखते ही पार्श्व के हित-चिन्तक एक राजा द्वारा उसे वहीं रोक दिया गया। विद्युत-दण्ड के समान अपना कृपाण निकालकर उसने उस शत्रु के तूणीर सहित धनुष-बाण को चूर-चूर कर डाला। इस प्रकार उस राजा ने शत्रु को जब चारों ओर से घेर लिया, तब देवों ने आकाश में कलकल निनाद किया। देवों के उद्घोष को सुनकर उस यवनराज ने मन में अपनी ही प्रशंसा मानकर वह मन एवं पवन की गति से तत्काल ही वहाँ पहुँचा, जहाँ त्रिभुवनपति पार्श्वकुमार स्थित थे। शान्त-वृत्ति वाले हयसेन-पुत्र पार्श्व ने उस यवन को सम्मुख आया हुआ देखकर लगातार बाण-वर्षा कर, उसकी कराल-करवाल को पुनः चकनाचूर कर उसकी ऋद्धि को ही नष्ट कर डाला। पासणाहचरिउ :: 111
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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