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________________ दवदहण सिहेव फुलिंग वंति पुण्णालिव सव्वत्थ वि रवंति।। परसण वहवेल्लिव वेयवंति दिणयरकिरणोलिव तेयवंति।। णियपउरतेय पूरिय धरित्ति आवंति णिएवि सहसत्ति सत्ति।। मलसंगइँ सुररयणायरेण । तमयारिणि रयणि दिवायरेण।। रइ-मुणिणा माया-णिज्जरेण गइ सिद्धि सइरिणि सुपुरिसेण।। तिहुअण जणणाहें हिंस जेम पासेण वि सा परिहरिय तेम।। घत्ता— गय विहल सत्ति पिक्खेवि पुणु लेवि करालु करवालु अमिडियउ। णं विज्ज्दंड-मंडिउ चवलु गिम्हहो णवघणु अमरिस चड्डियउ।। 92 || 5/13 Extra-ordinary power of Yavanrāja described. दुवइ– जइवि अमोहसत्ति पइँ णिरसिय तो वि ण वहमि भउ मणे।। जा करयल किवाणु महु वि सहइ संगरि मिलिय बहुजणे।। छ।। इय भणिवि भिडिउ रण-रस णडिउ।। महिवहि जउणु अमुणिय सउणु।। कुल-णह-दुमणि सुहड-सिरोमणि।। दावाग्नि के समान वह अमोघशक्ति स्फुलिंग छोड़ रही थी और पुण्णालि (धौंकनी) जैसी विरूप शब्द कर रही थी। परसण-बेल की तीव्र गति के समान तीव्रवेग वाली, सूर्य की तेज किरणों के समान तेजवाली, अपने प्रवरतेज से सम्पूर्ण पृथिवी को पूरती हुई, उस शक्तिपुंज को सहसा ही अपनी ओर आता देखकर, जिस प्रकार क्षीरसागर से मल-संगति, सूर्य से तमकारक रात्रि, मुनि से रति, कर्म-निर्जरा से माया, सिद्धि प्राप्त सुपुरुष से स्वैरिणी नारी तथा त्रिभुवननाथ से हिंसा छूट जाती है, उसी प्रकार कुमार पार्श्व के सम्मुख यवनराज द्वारा मुक्त वह अमोघशक्ति भी (स्वतः ही) नष्ट हो गई। घत्ता- अमोघ शक्ति की विफलता को देखकर उस यवनराज को प्रचण्ड क्रोध उभर आया। अतः वह कराल करवाल लेकर पुनः उन पार्श्व से आ भिड़ा। उस समय वह ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों विद्युत्दण्ड से मण्डित कोई चपल नवमेघ ही रोषपूर्वक ग्रीष्मऋतु से आ भिड़ा हो। (92) 5/13 यवनराज की असाधारण-शक्ति का वर्णनद्विपदी— (यवनराज ने क्रोधित होकर कुमार पार्श्व को ललकारते हुए कहा)- यद्यपि तूने मेरी अमोघशक्ति-आयुधास्त्र को नष्ट कर दिया है, तो भी मैं अपने मन में अभी तक भयभीत नहीं हुआ हूँ। जब तक मेरे हाथ में कृपाण सुशोभित है, तब तक मुझे युद्ध में तुम जैसे अनेक शत्रु-सुभटों से अभी भेंट करना शेष हैयह कहकर सुभट-शिरोमणि वह महिपति यवनराज शकुन-अपशकुन का विचार किये बिना ही रण के रस में उन्मत्त होकर नाचने लगा और भिड़ गया। कुल रूपी आकाश के लिये सूर्य के समान, गजरूपी पर्वतों के लिये बज्र के समान, अश्व रूपी वृक्षों के लिये 108:: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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