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________________ डॉ. याकोबी के अनुसार महावीर-पूर्व के जिस अग्रायणीय आदि चतुर्दश-पूर्व- साहित्य की चर्चा आती है और महावीर के पहले जो कोई प्रभावक सम्प्रदाय था, जो कि चातुर्याम का प्रचारक था, तीर्थकर पार्श्व उसके नायक थे । जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि तीर्थकर महावीर जैनधर्म के संस्थापक नहीं, वे उसके प्रचारक थे। उनके पूर्व 23 तीर्थंकर और भी हो चुके थे, उनमें से तीर्थंकर ऋषभ से लेकर तीर्थंकर नेमिनाथ तक, उनके जीवन-चरितों के अंकन में असम्भव जैसी लगने वाली अनेक बातें जुड़ गई, जिनसे सामान्य विचारक के मन में उनकी ऐतिहासिकता सन्दिग्ध जैसी लगने लगी, जैसे कि उनके आयुष्य, कुमार-काल एवं तीर्थकाल आदि को देखें, तो उनकी अवधि एवं अन्तराल में लाखों अथवा करोड़ों वर्षों का अन्तर बताया गया है । यद्यपि कि मानव सृष्टि-विद्या (Anthropology) के अनुसार वे अब सत्य भी प्रतीत होने लगी हैं। उनकी आयु, कुमारकाल तथा तीर्थकाल आदि के विषय में जो जानकारी विविध साक्ष्यों से मिलती हैं, वह अब सम्भाव्य एवं विश्वासजनक प्रतीत भी होने लगी है। 1 अर्धमागधी-आगम-साहित्य के अनुसार वर्धमान महावीर के माता-पिता पासावचिज्ज (पार्श्वोपत्यिक) थे । इस पासवचिज्ज अथवा पार्श्वपत्यिक शब्द के दो अर्थ स्पष्ट रूप से निकलते हैं (1) पार्श्वपत्यीय तीर्थंकर-पार्श्व के अनुयायी थे । (2) और वे, चातुर्यामी अर्थात्, अहिंसा आदि चार यामों के प्रतिपालक थे । उत्तराध्ययन सूत्र के केशी- गौतम संवाद में स्पष्ट रूप से कहा गया है चाउज्जामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ । देसिओ वड्ढमाणेण पासेण य महामुणि || अर्थात् हे महामुनि, चातुर्याम-धर्म का उपदेश पार्श्व ने किया और पंचशिक्षा अर्थात पंचयाम का उपदेश वर्धमान ने किया। इससे यह स्पष्ट है कि पार्श्वनाथ चातुर्याम के उपदेशक थे। उनके अनुयायी पार्श्वापत्यीय कहलाते थे। बदली हुई युग-परिस्थितियों में वर्धमान महावीर ने पाँच प्रकार की शिक्षाओं अर्थात् अहिंसादि पंचयाम की शिक्षाएँ दी । शौरसेनी- जैनागमों तथा अन्य दिगम्बर जैन साहित्य में यद्यपि पार्थ्यापत्य तथा चातुर्याम जैसे पद - वाक्य नहीं मिलते। किन्तु आचार्य पूज्यपाद (5वीं सदी) के अनुसार भगवान महावीर ने सर्वप्रथम 13 प्रकार के चारित्र का उपदेश दिया। इसके पूर्व अन्य किसी तीर्थंकर ने नहीं । पूज्यपाद के उक्त कथन का समर्थन उत्तराध्ययन सूत्र तथा उसके टीकाकार अभयदेवसूरि तथा शान्त्याचार्य के कथन से भी होता है। अभयदेवसूरि ने चतुर्थ याम — परिग्रह में ही ब्रह्मचर्यव्रत समाहित बताया है । इसी प्रकार शान्त्याचार्य के अनुसार चातुर्याम वही है जो ब्रह्मचर्यात्मक पाँचवे महाव्रत सहित है' । 1. 2. SBE Seried Vol. 45 P. 13 के समणस्य णं भगवओ महावीरस्म अम्मा-पियरो पासावचिज्जा समणोवासगा या वि होत्था (आचारांग 2 / 7 ) इस सूत्र पासावचिज्ज की व्याख्या इस प्रकार की गई है (क) पार्श्वापत्यस्य पार्श्वस्वामिशिष्यस्य अपत्यं शिष्यः पार्श्वपत्यीयः (ख) पार्श्वजिन शिष्याणामयं पार्श्वापत्यीयः - ( भगवती 1 / 9 ) (ग) पार्श्वनाथशिष्यः - ( स्थानांग / 9 ) (घ) चातुर्यामिक साधौ – (भगवती. 15) चारित्रभक्ति 1-7 3. 4. चतुर्थ याम - बहिद्धादाण-बहिर्धाआदान 5. चातुर्याम स एवं मैथुनविरमणात्मकः पंचमव्रतसहितः - ( उत्तराध्ययन सूत्र टीका - सूत्र 23 ) प्रस्तावना : 17
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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