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________________ 5/8 Yavanrāja is worried over the heavy loss of his elephants and thinks about the strength of his powerful enemy (Pārswa). दुवइ- एक्कल्ले अणेण पुणु दारिय चूरियमत्त कुंजरा। अइगंभीरघोस घण-विग्गहं महु णं ककुह-कुंजरा।। छ।। एरिसु विक्कमु जसु एत्थु अस्थि महियले तहो दुल्लहु किंपि णत्थि।। मण्णमि सुरवरु एह पवरहेइ इयरह कह महबलु खयहो णेइ।। अहवा किं वरविज्जा करंड् विज्जाहरु रण-जणणिहि तरंडु।। इयरहँ कह मत्त महागयाइँ महु तणइँ खणेण समाहयाइँ।। अहवा किं मणुअहो करेवि वेसु महु बलु चप्पिउ रोसेण सेसु ।। अवयरिउ एत्थु करिचूरणत्थु विसमय बाणहिँ भूसेवि हत्थु।। अहवा जो जगि जिणणाह वुत्त जुअ खउ लोयहिँ सो एहु पुत्तु।। इयरह कह गय संहरिय सव्व णिरसिय वइरिय जण महंत गव्व।। अहवा मह रिउणा भत्तियाए मण-वयण-तणुहिं मह सत्तियाए।। आराहिउ होसइ कोवि देउ इयरहँ कह मायंगहँ अजेउ।। अहवा किं महु पवियप्पणेण कयसंदेहें पुणु-पुणु अणेण।। करे कंकणु जो दप्पणे णिसेइ तं पेक्खिवि को ण णरु हसेइ।। 5/8 यवनराज अपने गज-समूह के संहार पर चिन्तित होकर अपने महाशत्रु (पार्व) की शक्ति पर विचार करता है— द्विपदी—अत्यन्त गम्भीर घोष करने वाले, घन के समान विग्रह (शरीर) वाले, मेरे जो हाथी दिग्गज के समान बलशाली थे, उन्हें भी इस वीर ने अकेले ही चूर-चूर कर डाला। इस समरभूमि में जिसका ऐसा पराक्रम है, महीतल पर उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि प्रवर अस्त्र धारी यह कोई सुरवर ही है, अन्यथा मेरे इस महाबल का संहार वह कैसे कर सकता था? अथवा, क्या यह श्रेष्ठ विद्याओं का करण्ड-पिटारा वाला कोई विद्याधर है? अथवा, रण रूपी समुद्र का सन्तरण कराने वाला कोई जहाज? अन्यथा यह देखते-देखते ही मेरे महामत्तगज-समूह को क्षण भर में ही कैसे रौंद डालता? ____ अथवा, क्या यह मनुष्य-वेश धारण किये हुए कोई शेषनाग है, जिसने विषमय वाणों से भूषित हाथों द्वारा हमारे गज-समूह को चूर-चूर करने के लिये ही मानों इस भूमि पर अवतार धारण किया है और उसने क्रोधावेश से भरकर मेरे महाबल को चाँप दिया है? अथवा, जमत् में जो जिननाथ कहे जाते हैं, और जो लोगों के राग-द्वेष (जुअ) का क्षय करने वाले हैं, वही इस समर-भूमि में आ पहुँचे हैं? यदि ऐसा न होता, तो इन्होंने अकेले ही मेरे गजों का संहार कैसे कर डाला? और अपने बैरीजनों के महान गर्व को कैसे निरस्त कर डाला? अथवा, मेरे महा शत्रु-रविकीर्ति ने मन-वचन-काय की अत्यन्त एकाग्र भक्तिपूर्वक महाशक्ति-सम्पन्न किसी देव की आराधना की होगी। अन्यथा, वह हमारे मत्तगज-समूहों से अजेय कैसे रह पाता? अथवा, मेरे द्वारा अनेकविध विकल्प और बार-बार इस प्रकार के सन्देह करने से क्या लाभ? हाथ में कंकण होने पर भी, जो उन्हें दर्पण में देखता रहता हो, उसे देखकर कौन व्यक्ति उसकी हँसी नहीं उड़ायेगा? पासणाहचरिउ :: 103
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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