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________________ 5 10 पंचमी संधी 5/1 Enemy Yavanrāja in a fit of anger, traps King Ravikīrti with his elephants. घता - भज्जंतउ णियसाहणु णिएवि जउणु णराहिउ परबल कुद्धउ । भूभाल चडावेवि खरणहरु हरिव करिंद-मंस-रस-लुद्धउ ।। छ।। दुवइ— मा-मा-मा-पलाहु जइ जाणहु तं आणिऊण पुणु लज्जइँ पयवडण णिपीडिय विसहरे हिँ सकणाणिल विहुणिय महुअरे हिँ नक्खत्तमाल-मंडियउरे हिँ पसरिय कर परिसियदिणयरेहिँ दिढदसणमुसल-हय-महिहरे हिँ कणयमय-सारि - सिरि-सुंदरे हिँ गिज्जावलि वलयालंकि हिँ करडयल - गलिय-मयजल-कणेहिँ महु उवयरिउ नियमणे ।। बलु भिडियउ रणंगणे । । छ । । चिक्कार परज्जिय जलहरेहिँ । । उप्पाडिय दिढयर तरुवरेहिँ । । विद्वंसिय णयरायरपुरेहिं । । अणवरयमुक्क कर सीयरेहिँ । । णियबल कंपाविय महिहरेहिँ । । घंटा रव बहिरिय कंदरेहिँ । । पडिगय-मारण-णीसंकिएहिँ । । अगणिय महबल परवल कणेहिं । । 5/1 क्रोधावेश में आकर यवनराज राजा रविकीर्ति को अपने गज-व्यूह से घेर लेता हैघत्ता - अपने साधन (सैन्यदल) को पलायन करता हुआ देखकर वह यवनराजा राजा रविकीर्ति की सेना पर क्रोध करता हुआ, भौंहों को भाल पर चढ़ाए हुए ऐसा लग रहा था, मानों हाथियों के माँस रस का लोभी तीक्ष्ण नखों वाला कोई सिंह ही हो । द्विपदी - ( पलायन करते हुए अपने सुभटों के प्रति वह ( यवनराज) चिल्लाकर बोला-) हे वीरो, यदि तुम लोगों के मन में मेरे द्वारा किये गये उपकारों का कुछ भी स्मरण आवे, तो, रणभूमि से पलायन मत करो, भागो मत, मत भागो। (स्वामी का यह आवाहन सुनकर समस्त सैन्य बल लज्जित हो गया और रणांगण में लौट कर शत्रुओं से पुनः भिड़ने लगा । उस यवनराज ने ऐसे मदोन्मत्त उत्तुंग एवं चपल गजों से राजा रविकीर्ति को जा घेरा, जिनके पदाघात ने विषधरों को भी पीड़ित कर डाला था, जिनकी चिंघाड़ ने मेघों को भी पराजित कर दिया था, जिनके कानों की वायु ने भ्रमर-पंक्ति को भी विधुनित कर डाला था, जिन्होंने सुदृढ़ तरुवरों को भी उखाड़ डाला था, जिनके उरुस्थल नक्षत्र मालाओं के हार से सुशोभित थे, जिन्होंने नगर आकर एवं पुरों का विध्वंस कर डाला था, जिनकी उन्नत सूँडें सूर्य का स्पर्श कर रही थीं, जो अपनी-अपनी सूँडों से अनवरत जल-शीकर (जल कण) छोड़ते रहते थे, जो अपने दाँतों रूपी मुशल से पर्वतों को भी तोड़ते-फोड़ते रहते थे और अपने बल से पर्वतों को कँपाते रहते थे। जो स्वर्णमयी सारी (झूलों) एवं हौदों की शोभा से सुशोभित थे, जिनके घण्टा रवों ने कन्दराओं को भी बहिरा बना दिया था, जिनकी ग्रीवाएँ वलयों से अलंकृत थीं, और जो प्रति-गजों को मारने में निःशंक थे, जिनके गण्डस्थलों से मदजल-कण प्रवाहित हो रहे थे, और जो शत्रु सैन्य के मदोन्मत्त गजों की अपेक्षा गणना में अगणित थे। जो शत्रु- सुभटों 94 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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