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________________ 5 भडु कोवि भणइ कायर महंति भडु कोवि भणइ बंधमि ण फुल्ल भडु कोवि भणइ किं धणु-सरेहिँ भडु कोवि भणइ जस हियए पास भडु कोवि भणइ महु तणउ जाणि भडु कोवि भणइ चुंबणु ण देमि भडु कोवि भणइ णह-णिहसणेण भडु कोवि भणइ रिउ हउ ण जाम भडु कोवि भणइ कुलहर-पईवु णिबंदु रज्जु सामिउ ण देमि भडु कोवि भणइ वियलिय कवाल तुंगिम जिय करि-कुंभत्थलाइँ सण्णाहु ण सुहड समुव्वंहति।। जा चंडि ण खंडमि वइरिमल्ल।। अच्छंतिहिँ दीहरयर करेहिँ।। णिवसइँ सण्णाहें काइ तासु।। भणु कंति म विहलु पसारि पाणि ।। पिययमे जयसिरि जा ण लेमि।। किं महु मणु-हिउ जयसिरि रसेण।। णालिंगणु पिययमे देमि ताम।। उड्डाइवि वइरीयणहँ जीवु।। जाव ण कति तंबोलु लेमि।। णच्चावमि जा रिउ मुंडमाल।। ण कलमि ता थोर थणत्थलाईं।। 15 घत्ता- भडु कोवि भणइ पिययमे णिसुणु एव्वहिँ जाणंतो वि ण मुज्झमि। किं बहुए सिरकमलेण पर पहु-पसाय दाणहो रिणु सुज्झमि।। 63 ।। प्रिया की दृष्टि में अपना हर्ष ही अर्पित कर दिया हो। कोई भट किसी से कह रहा था कि तुम बड़े कायर हो, अरे, सुभट लोग कभी कवच नहीं पहनते। कोई भट कह रहा था कि मैं जब तक चंड (रण) में बैरी मल्लों के खण्डखण्ड नहीं कर डालँगा, तब तक फल को नहीं बाँधगा। कोई भट कह रहा था कि यदि अपनी लम्बी-लम्बी भुजाएँ हैं, तो फिर धनुष वाण की आवश्यकता ही क्या? कोई भट कह रहा था कि जिसके हृदय में पार्श्वकुमार स्वयं विराजमान हो, उसके लिये कवच धारण करने का क्या प्रयोजन? कोई-कोई भट अपनी प्रियतमा से कह रहा था कि हे कान्ते, अपने मन में मेरे सम्बन्ध को जानकर अपने हाथ को व्यर्थ में ही दूसरे के सम्मुख मत फैलाना। कोई-कोई भट यह कहे जा रहा था कि हे प्रियतम, जब तक मैं जयश्री के साथ वरण न कर लूँ, तब तक मैं तुम्हें अपना चुम्बन नहीं दूंगा। कोई-कोई भट चिल्ला रहा था कि हे प्रिये, नखाघात से क्या लाभ, क्योंकि मेरा मन तो जयश्री के रस से जडा हुआ है। कोई-कोई भट कह रहा था कि हे प्रियतमे, जब तक मैं शत्रु का संहार नहीं कर डालता, तब तक तुझे अपना आलिंगन नहीं दूंगा। अपने कुल के लिये दीपक के समान कोई भट अपनी प्रियतमा से कह रहा था कि समस्त बैरियों का संहार कर तथा राज्य को निर्द्वन्द्व कर, हे कान्ते, जब तकं उसे मैं अपनी स्वामी को नहीं सौंप देता, तब तक ताम्बूल का सेवन नहीं करूँगा। और, कोई-कोई भट तो चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि बैरीजनों के कपालों को विगलित कर उनकी मुण्डमाला का जब तक मैं नचा न डालूँगा, तब तक ऊँचाई में गज के कुम्भस्थलों को भी जीत लेने वाले अपनी प्रिया के स्थूल-स्तनों का स्पर्श तक नहीं करूँगा। घत्ता- कोई-कोई भट तो अपनी प्रियतमा से यहाँ तक कह रहा था कि हे प्रियतमे, मेरी बात सुनो, सब कुछ जानते हुए भी में इस समय तुम्हारे मोह में नहीं उलशृंगा। अधिक क्या कहूँ, अपने सिर-कमल के दान के द्वारा मैं अपने प्रभु के प्रसाद के दान से उऋण होकर शुद्ध होना चाहता हूँ। (63) 72 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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