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________________ 10 15 लंघंतु सयल गामंतराइँ णिवसइ रविकित्ति णरिंदु जेत्थु आवंतहु तेण वि पासणाहु अहिमुहु जाएवि संभासिऊण आलिंगेवि वृत्तउ भाइणेज्जु तुहुँ जासु तणूरुहु देव-देव सो पर पुहविहिँ सकयत्थु धण्णु जं दिट्ठउ तुह पयजुअलु सामि घत्ता - तेण जि अहमवि सुहसय भरिउ जायउ वइरीयणहँ अभेज्जउ । कण पूरिय छेत्तरितराइँ । । संपत्तउ पासकुमारु तेत्थु ।। आयण्णेवि करि-कर- दीह - बाहु ।। थुइ विरवि पुणु वि णमंसिऊण ।। तिजगुत्तमु तिहुअण जण-मणोज्जु ।। विरयाविय विसहर खयर सेव ।। णियचित्त-मणोरह जुत्तु णण्णु ।। मइँ यिदिट्ठिए कुंभीसगामि । । अहवा ण किंपि अच्चरिउ एउ सइँ आयउ जिणु जासु सहेज्जउ ।। 61 || 4/3 Showering gratitudes upon Pārswa to help him at the time of grievious misery, King Ravikīrti also orders his ever-conquering army to be ready. दुवइ — तुहुँ महु मण विसालकमलामल रय रइरस दुरेहओ । मयमत्त मयंगयमद झरंत पक्खरिय तुरंगमु हिलिहिलंत इयरहँ कह समाउ मणचिंतिउ पयडिय पवर णेहओ । छ । । कण्णारि णिउंचिय चिक्करंत ।। खरखुरहि खमायलु दरमलंत ।। रविकीर्ति ने भी हाथी की सूँड़ के समान दीर्घ बाहुओं वाले अपने भांजे पार्श्वनाथ को आया हुआ सुनकर, उनके सम्मुख जाकर उन्हें नमस्कार कर, स्तुति की और उनका आलिंगन कर त्रिजगदोत्तम तथा त्रिभुवन के लिये मनोज्ञ उन (पार्श्व) से वार्त्तालाप किया तथा कहा— नागों एवं विद्याधरों द्वारा सेवित हे देवाधिदेव, आपको जिसने जन्म दिया है, वे माता-पिता, यह पृथिवी एवं नगर कृतार्थ हैं, धन्य हैं। वे ही अपने चित्त के मनोरथों से परिपूर्ण हैं, अन्य नहीं । स्वामिन्, हे गजगामिन्, मैंने अपने नेत्रों से आपके चरण-युगल के स्वयं दर्शन किये हैं, अतः मैं भी धन्य हो गया हूँ घत्ता— आपके दर्शनों से मैं सैकड़ों सुखों से भर गया हूँ तथा बैरीजनों से भी अभेद्य हो गया हूँ। अथवा जिसकी सहायता के लिये स्वयं जिनदेव ही पधारे हों, यदि वह बैरीजनों से अभेद्य हो जाय, तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? (61) 4/3 पार्श्व के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर राजा रविकीर्ति की सैन्य 70 :: पासणाहचरिउ तैयारी द्विपदी - (राजा रविकीर्ति ने कहा- हे पार्श्व) 1 – आप मेरे मन रूपी विशाल कमल की निर्मल रज (पराग) के रतिरस में लुब्ध भ्रमर के समान हो, मेरे मन के द्वारा चिन्तित हो, अन्यथा, मेरे प्रति अपना परम स्नेह प्रकट करने के लिये आप (स्वयं ही) यहाँ क्यों आते ? राजा रविकीर्ति की सेना का वर्णन कानों को सिकोड़ कर चिंघाड़ते हुए मदोन्मत्त मतंगज मदजल को प्रवाहित कर रहे थे, अपने तीक्ष्ण खुरों से
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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