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________________ 5 10 सकामाबलाणं मणं तोसयंती पुरे कंदरे मंदरे संचरंती सुसेलिंधगंधुक्क- रेणुल्लसंती गए संगणाणं महंती हवंती सुसद्देहि पारावयाणं रणंती उम्मत्त कोढुल्ल कीलाणुरती तओ उग्गओ चंदु चंदाहवत्ता णिएऊण वोमोयरे चंदकंती हुआ अंतरिक्खे तमो पोमिणीणं जाए जासु जो चित्त मज्झे णिसण्णो समग्गं जयं झत्ति जोण्हा जलेणं घत्ता सुके-ठाणाइँ संभूसयंती ।। जाणं हे दिविचारं हरंती ।। असे सावणी वत्थु सत्थं गसंती ।। महारंध - मग्गे स पाया ठवंती ।। सकंती गोरीस कंठं जिणंती ।। गया जाम जामेक्क अंधार रत्ती ।। पकीलंति कंता सकंताणुरता ।। हरंती समं कामुआणं सरंती ।। ण सोमो वि सोमो हुआ पोमिणीणं । । हिजो सुहाणं परं तासु णण्णो ।। तमोहाबहंखालियं णिम्मलेणं ।। घत्ता, इय चंद-किरण- भासिय-रयणि गलिय जाम पच्चूस हुउ | ता माणिय माणिणि वर तणुहि तंबचूल - रउ जणहिँ सुउ ।। 58 ।। 3/20 The charming description of the early morning and sunrise. एत्थंतरि उग्गमउ दिवायरु णासंतउ तमु पूर-चकायरु ।। कामिनी-अबलाओं के मन को संतुष्ट करती हुई तथा सुसंकेतित स्थलों को भूषित करती हुई, पुर (भवन), कंदरा (गुफा), एवं मंदर (भवन) में संचार करती हुई, मार्ग पर मनुष्यों की दृष्टि संचार का हरण करती हुई, पुष्पों में स्निग्ध-गंध के प्रसार को उल्लसित करती हुई, अशेष-भूमि के वस्तु समूह को ग्रसित करती हुई, जिनके प्रियतम परदेश गये हुए हैं, उनकी पत्नियों के लिये दीर्घकालीन होती हुई, महारन्ध्र वाले मार्गों में अपने पैर जमाती हुई, कबूतरों के उत्तम शब्दों के माध्यम से वार्त्तालाप करती हुई, अपनी कान्ति से गौरीश (महादेव) के कण्ठ की कान्ति को जीतती हुई, उन्मत्त कोढी (उल्लू)गणों को क्रीड़ा में अनुरक्त करती हुई, उस रात्रि का जब एक प्रहर बीत गया, तब चन्द्र का उदय हुआ । चन्द्रतुल्यमुख वाली कान्ताएँ अपने-अपने कान्तों में अनुरक्त होकर क्रीड़ाएँ करने लगीं। आकाश के मध्य चन्द्रकान्ति को देखकर कामुकों के श्रम को दूर करती हुई, तथा उनका सुखद स्मरण करती हुई कान्ताएँ सन्तुष्ट होने लगी। अन्तरिक्ष में तम पद्मिनी (कमलिनियों) का हो गया । किन्तु चन्द्रमा के सोम (सौम्य ) होने पर भी वह पद्मिनी नारियों के लिये सोम-सन्तोष कारक सिद्ध न हो सका। जगत् में जिसके चित्त में जो बैठा था, वही उसके सुखों का साथी एवं सहनेवाला था, अन्य कोई नहीं । चन्द्रमा ने अपनी चाँदनी रूपी निर्मल जल से समस्त जगत के विस्तृत गाढान्धकार को प्रक्षालित कर दिया । इस प्रकार चन्द्र-किरणों से भासित वह रजनी गल (अस्त) गई और जब प्रत्यूष (सुप्रभात ) - काल आ गया तभी मानिनियों द्वारा सन्तुष्ट किये गये उत्तम युवा शरीरवाले जनों ने ताम्रचूड (मुर्गे की बाँग को सुना । (58)। 3/20 सुप्रभात - सूर्योदय का मनोहारी वर्णन इसी बीच अपनी ज्योति से गाढान्धकार को नष्ट करने वाले, हिमकर (चन्द्रमा) और तारा - समूह की रुचि को पासणाहचरिउ :: 65
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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