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अन्य ग्रन्थों में भी पार्श्व के वंश को 'इक्ष्वाकु' ही बतलाया गया है। महाकवि पउमकित्ति ने पार्श्व के वंश का स्पष्ट कथन तो नहीं किया किन्तु उन्होंने तीर्थकरों के वंश के संबंध में एक सामान्य कथन किया है कि कुछ तीर्थकर इक्ष्वाकुवंश में, कुछ हरिवंश में और कुछ सोमवंश में उत्पन्न हुए थे' |
तीर्थंकर पार्श्व के माता-पिता के नामों की सूचना कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः सर्वत्र एक सदृश उपलब्ध होती है। बुध श्रीधर ने पार्श्व के पिता का नाम हयसेन एवं माता का नाम वामादेवी बतलाया है। समवायांग' तथा आवश्यकनिर्युक्ति' में पार्श्व के पिता का नाम 'आससेण' तथा माता का नाम 'वामा' बताया गया है। समवायांग का अनुसरण कर उत्तरकालीन अनेक आचार्य-कवियों ने पार्श्व के माता-पिता के यही नाम निर्दिष्ट किये हैं । किन्तु गुणभद्र कृत (9वीं सदी) उत्तरपुराण में पार्श्व के माता-पिता का नाम क्रमशः ब्राह्मी और विश्वसेन बताया गया है। आचार्य पुष्पदंत (9वीं सदी) तथा महाकवि वादिराज ( 10वीं सदी) ने उत्तरपुराण का ही अनुसरण किया है किन्तु वादिराज ने पार्श्व की माता का नाम ब्रह्मदत्ता ( 9 / 95 ) बतलाया | अपभ्रंश महाकवि पउमकित्ति ( 10वीं सदी) तथा महाकवि रइधू (15वीं-16वीं सदी) ने उनके पिता को हयसेन कहा है। 'अश्व' और 'हय' नाम में कोई विशेष भेद नहीं प्रतीत होता । वस्तुतः दोनों ही पर्यायवाची शब्द हैं। तिलोयपण्णत्ती में पार्श्व की माता का नाम वर्मिला तथा पद्मचरित (20 / 59 ) में वर्मा देवी बतलाया गया है। प्रतीत होता है कि प्राकृत के वम्मा को संस्कृत रूप वर्मा प्रदान किया गया है।
जन्मस्थल, जन्मकाल एवं नामकरण
बुध श्रीधर ने पार्श्व की जन्मभूमि काशी देश में स्थित वाणारसी नगरी बतलाई है। समवायांग' तथा उसके परवर्ती लिखित ग्रन्थों के अनुसार पार्श्व का जन्मस्थान वाणारसी ही है। यह नगरी अत्यन्त प्राचीन काल से भारत की एक प्रसिद्ध नगरी रही है। स्थानांग में स्पष्ट उल्लेख है कि वाणारसी जंबूद्वीप में दस सुप्रसिद्ध राजधानियों में से एक है ।
बुध श्रीधर ने पार्श्व का जन्म पौष कृष्ण एकादशी माना है। तिलोयपण्णत्ती में भी वही तिथि उल्लिखित है किन्तु कल्पसूत्र में पार्श्व का जन्म समय पौष कृष्णा दशमी की मध्यरात्रि दिया गया है। इन ग्रन्थों के अनुसार दिगम्बरश्वेताम्बर परंपराओं में यत्किंचित् तिथिभेद बना हुआ I
आचार्य गुणभद्र' तथा उनके अनुसार ही महाकवि पद्मकीर्ति तथा बुध श्रीधर ने भी कहा है कि इन्द्र ने अभिषेक के बाद शिशु का नाम पार्श्व रखा था । किन्तु आवश्यक निर्युक्ति' के अनुसार जब पार्श्व गर्भ में थे, तभी माता वामादेवी ने अपने पार्श्व (बगल) में एक काले सर्प के दर्शन किये थे, इस कारण बालक का नाम भी पार्श्व रख दिया गया। श्वेताम्बर-परम्परा के समस्त ग्रन्थकारों ने इसी परम्परा का अनुकरण किया है। जब कि बुध श्रीधर सहित दिगम्बर परम्परा में, आचार्य गुणभद्र कृत उत्तरपुराण का अनुकरण किया गया है।
1. पासणाह. (मोदी) - 17/13/9-10
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समवायग सुत्त 247
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आवश्यक नियुक्ति 388
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उत्तरपुराण 73/75
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9.
पासणाह. 1/14
समवायांग 250 / 24
स्थानांग. 995
उत्तरपुराण 73/92
आवश्यक नियुक्ति 1091
12 :: पासणाहचरिउ