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________________ 3/5 Further, the messanger informs King Hayasena - "Yavanrāja, the powerful ruler of a Janapada situated on the banks of river Kälindi, asks King Ravikirti for the hands of his daughter or otherwise threatens for a battle on disagreeing." At this 5 10 तं णिसुविणु सोयविवज्जिउ तहिँ अवसरे दूण णवेष्पिणु संलत्तउ सुणु सिंधुरगइ-गामिय कालिंदी - तीरिणि तडि णिवसइ णिय जाणेवि विणएणावज्जिउ ।। सिरि-सिहरोवरि पाणि ठवेष्पिणु ।। सावहाणु होएविणु सामिय । । रु एक्कु जो जणवउ हरिसइ ।। जो यमग्गु सबंधुहु सुच्चइ ।। हरिणारिव रिउ हरिण-विणासणु ।। सक्कवम्मु ठिउ दिक्ख लएविणु ।। धरणीसरु रविकित्ती उत्तउ ।। करमउलेविणु विणउ पयासहि ।। विप्फुरंत णियलच्छि म णिरसहि ।। मइँ सहुँ दूसह रण महि लग्गहि ।। धणु जह तह सर-धोरणि वरिसहि ।। उराउ तओ सामिउ वुच्चइ दप्पुमड भूभंग - विहीसणु तेण सयर-वयणह जाणेविणु स वओहर वयणहिँ गुणजुत्तउ देहि सदुहिय म कज्ज विणासहि केव महारी लेविणु णिवसहि अहवा भुअवल वाए वग्गहि कुमइ विभाविउ अविणउ दरिसहि घत्ता- ता णयर-कुसत्थलवइ णिसुणि ससुइ सबंधउ लहु मरहि । विरसंत तुहु णित्तुलउ तम मुहु कुहरंतरि पइसरहि ।। 44 ।। सन्देशवाहक के अनुसार कालिन्दी नदी के से उसकी पुत्री का हाथ माँगता है और न 3/5 तटवर्त्ती जनपद का स्वामी यवनराजा रविकीर्ति देने पर वह उसे युद्ध की धमकी देता है । इस पर उस विवेकशील सभासद का कथन सुनकर वह राजा हयसेन शोक को छोड़कर एवं (अपने कर्त्तव्य कार्य को जानकर राजा शक्रवर्मा के प्रति) विनयशील हो उठा । वचोहर-दूत ने उसी अवसर पर नमस्कार कर, शिर के ऊपर हाथों को रखकर कहा - "गज के समान गमन करने वाले हे स्वामिन्, सावधान होकर सुनिए— कालिंदी (यमुना नदी के तट पर एक ऐसा नगर बसा है, जो लोगों को हर्षित करता रहता है। उस नगर के स्वामी का नाम जउन ( यवन) राजा है, जो अपने बन्धुओं को नय-मार्ग सूचित करता रहता है। वह दर्पोद्भट है तथा अपनी भयंकर भ्रूभंग से विभीषण है। सिंह के समान वह शत्रुरूपी हरिणों का नाश करने वाला है। उसने अपने गुप्तचरों से यह जान लिया है कि राजा शक्रवर्मा दीक्षा लेकर (वन में) स्थित है । उस यवनराज ने अपने वचोहर (दूत) के द्वारा उस गुणज्ञ धरणीश्वर - रविकीर्ति को सन्देश भिजवाया है।" कि मुझे अपनी पुत्री दे दे (ब्याह दे) । इस कार्य को बिगाड़ मत (और हमारे सामने), हाथ जोड़कर अपनी विनय प्रगट कर तथा हमारी कृपापूर्वक ही निवास कर । स्फुरायमान अपनी लक्ष्मी को नष्ट मत कर अथवा भुजबल रूपी वायु से उछलना हो, तो मेरे साथ दुःसह रण की भूमि में आकर लग (युद्ध कर), कुमति से प्रभावित होकर यदि अविनय दिखाता है, तो जैसे मेघ बरसता है, उसी प्रकार (तेरे ऊपर हमारे) वाणों का समूह - बरसेगा ।" घत्ता- "हे नगर- कुशस्थलपति, और सुन, तू अपने पुत्र, बन्धु बान्धवों के साथ शीघ्र ही मरेगा अथवा तू रोता- सिसकता हुआ निस्तुल- निष्प्रभ होकर और अपना मुँह काला कर किसी पर्वत- गुफा में जा छिपेगा । " ( 44 ) पासणाहचरिउ :: 51
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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