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________________ 10 5 वर समचउरससंठाणवंतु छणरयणीयर दंसणे हसंतु णिम्मल-सल्लक्खण लक्खियंगु सहभव अइसय दह लच्छिवंतु ।। परियण बोल्लाविउ उल्लसंतु ।। तणु-तेय परज्जिय णव-पियंगु । । घत्ता- बुल्लावइ कोवि मल्हइ कोवि कोवि समप्पइ कीरु । साहामउ कोवि पड्डलु कोवि कोवि रवण्णउ मोरु ।। 35 ।। 2/15 Peculiar amusing funs and sports of the little baby (Pārśwa). सक्काणए पेरिउ देउ कोवि चवलंगु तुरंगमु तंवचूलु कीलइ सहुँ हयसेणहो सुएण सह जायकेस - जड-जूडवंतु अविरल धूली धूसरिय देहु वि-रिहिँ लिज्जइ झत्ति केम जो तं णिएइ वियसंत वयणु सो अमरु व अणिमिस णयणु ठाइ णायर-णर मणहरु पीलु होवि ।। सेरिहु सुमेसु विसु साणुकूलु ।। जयलच्छी परिलंछिय भुएण । । कडि - रसणा किंकिणि सद्दवंतु ।। सिसु कीलाल सिरि रमण गेहु ।। तिहुयण जण मोहणु रयणु जेम ।। वणियाणु बुहयणु अहव सयणु ।। णव कमल लीणु भमरु व विहाइ ।। संस्थान युक्त थे, जन्म से साथ में उत्पन्न हुए दश अतिशय रूपी लक्ष्मी से युक्त थे। कभी-कभी वे पूर्ण चन्द्रमा को देखकर हँसते थे, तो कभी-कभी परिवार जनों के बुलाने पर उल्लसित होते थे, वे निर्मल उत्तम चिन्हों ( 1008 लक्षणों ) से लक्षित शरीर वाले थे, और अपने शरीर के तेज से नवीन सूर्य को भी पराजित करते थे । घत्ता— उन्हें कोई बुलाता था, तो कोई बैठाता था और कोई-कोई उन्हें कीर (शुक) देता था । कोई-कोई बंदर लाता था, तो कोई-कोई पक्षी लाता था और कोई-कोई उन्हें सुन्दर मोर देता था । ( 35 ) 2/15 पार्श्व के बाल्यकाल का वर्णन शक्र (इन्द्र) की आज्ञा से प्रेरित किया गया कोई देव (अपनी विक्रिया- ऋद्धि से) नागरिक जनों के मन को हरने वाला हाथी (पीलु) बनकर, कोई देव चंचल-शरीर वाला घोड़ा बनकर, कोई देव ताम्रचूड (मुर्गा बनकर, कोई देव उत्तम सेही तथा भैंसे का रूप बनाकर अथवा पुष्पवाण या कमलनाल बनकर, कोई देव सानुकूल (मन इच्छित) रूप धारण कर, विजयलक्ष्मी से परिलांछित भुजावाले राजा हयसेन के पुत्र बालक पार्श्व के साथ क्रीड़ा करते रहते थे T वे (जिनेन्द्र) जन्म से ही उत्पन्न हुए केशों की जटाजूट वाले थे। उनकी कटि में रसना (कटिसूत्र - करधनी) की किंकिणी (घुंघरु) रुणझुण रुणझुण करती रहती थी। उनकी देह निरन्तर धूलि धूसरित रहती थी । वे बाल-प्रभु शिशुक्रीड़ा रूप निर्मल लक्ष्मी के रमने के लिए गृहस्वरूप थे। राज-रानियाँ झट से उन्हें गोदी में ठीक उसी प्रकार ले लेतीं थीं, जिस प्रकार कि त्रिभुवन के जनों के मन को मोहने वाले रत्न को उठ लिया जाता है। चाहे बनिताजन हो या ाजन अथवा स्वजन और चाहे जो भी हो, प्रभु के विकसित प्रफुल्लित वदन को जो भी देखता था, वही उन पर मोहित हो जाता था और (उन्हें देखकर ) वह देवों की तरह ही पलक रहित स्थिर नेत्रवाला हो जाता था। जिस प्रकार नवीन कमलों में लीन भ्रमर सुशोभित होता है, ठीक वैसे ही पार्श्व के नेत्रों को देखकर लोग मोहित हो पासणाहचरिउ :: 41
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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