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________________ कूराइँ कम्माइँ वज्जिवि असेसाइँ कण्णट्टिया-दुव्व मंगलइँ घेत्तूण आबाहिऊणं दिसा-बाल सव्वाइँ "लेहु-लेहु जपंति कलसइँ समप्पंति सोहम्मु-ईसाण-गिव्वाण-राएहिँ बुज्झेवि जिणणाह धम्महो विसेसाइँ।। विवरीय संजाय भावाइँ छेत्तूण।। जिणभणिय मंतेहिं परगलिय गव्व।। धावति पावंति ण मणावि कंपति।। जिणदेहु सिंचियउ णय वीयराएहि।। घत्ता- णाणा सुमणेहिँ सालिगणेहिं पुज्जिउ इंदसएण। जिणवरकमकमलु हयभवियमलु अविचल सुक्खकएण।। 28 ।। 2/8 Lord Indra decorates the infant (Hero) with various precious ornaments. जइविहु तणु-तेएँ विमलु देहु णिम्मल ति-णाण-माणिक्क गेहु।। तो वि हरिणा खीरंबुहि जलेण भत्तिए पहाविउ अइणिम्मलेण।। णिव्वसणहो वसणु ण सहइ केम दिण्णउ जलपडलू व रविहे जेम।। जगभूसणे भूसणु भारु णाइँ किं कँवल मंडणु णेत्ते भाइँ।। एउ जाणतेण वि सयमहेण तणु जुइ उज्जोइय-मरुवहेण।। सुइजुअलु जिणहो पविसूइयाएँ विद्धउ जगु णं रइ-दूइयाएँ।। - विशेषताएँ पूछीं। सभी देवगण कण (धान्य), मिट्टी, सरसों, दूर्वा आदि मंगल द्रव्यों को लेकर विपरीत गामी अशुभ भावों को छोडकर, समस्त दिशाओं के दिग्पालों का आवाहन कर के जिनभणित मन्त्रों से “जल्दी लो" "जल्दी पकड़ों", कहकर, गर्वरहित होकर उन कलशों को समर्पित करने लगे और दौड़ने लगे, लेने लगे, आदि प्रक्रियाओं में वे अल्पमात्रा में भी काँपे नहीं। इस प्रकार सौधर्म, ईशान के देवराजों ने वीतराग जिनेन्द्र की नवीन देह को सींचा (अभिषेक किया)। घत्ता– अविचल सुख के अभिलाषी शत-इन्द्रों ने भव-मल (रागद्वेष मोह) रहित होकर जिनवर के चरणकमलों को नाना (विविध) पुष्पों एवं शालि-(तण्डुल) समूहों के द्वारा पूजा। (28) 2/8 इन्द्र ने जिनेन्द्र को बहुमूल्य विविध आभूषणों से विभूषित कियायद्यपि शिशु जिनेन्द्र अपने शरीर के तेज के कारण निर्मल कान्ति युक्त थे, तथा निर्मल तीन ज्ञान रूपी माणिक्य के गृह-स्वरूप (सुशोभित) थे, तो भी इन्द्र ने उन्हें क्षीर-समुद्र के अतिनिर्मल जल से भक्ति पूर्वक स्नान कराया। निवर्सन (वस्त्र-रहित) को वस्त्र उसी प्रकार सुशोभित नहीं कर सकते, जिस प्रकार कि जल-पटल (मेघ-समूह) रवि को सुशोभित नहीं कर सकते। जगत् के भूषण (जिनेन्द्र) के लिये आभूषण भार स्वरूप थे। क्या नेत्र में कमल सुशोभित हो सकता है? ऐसा जानते हुए भी शतमख (इन्द्र) ने मरुत्पथ (आकाश) को अपनी तनु धुति से उद्योतित करने वाले जिनेन्द्र के कर्ण-युगल को वज्र की सूची से वेध दिया। ऐसा प्रतीत होता था, मानों रति रूपी दूती द्वारा जगत् को ही- वेध दिया गया हो। पासणाहचरिउ :: 33
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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