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________________ 10 5 कत्थइँ सदप्प मल्लइ भिड़ंति कत्थइँ गहीर तूरइँ रसंति कत्थइँ मरालु अइधवलदेहु कत्थइँ हरिणाहि भएण भग्गु कत्थइँ विहाइ अलि रुणरुणंति घत्ता - इय सोहए देव मण्णियसेव मुह-पह हय सयवत्त । भूसणयर दित्त हरिसिय चित्त वाणारसि पुर पत्त ।। 25 ।। कत्थइँ खुज्जयणियरइँ णडंति । । णं सहरस दिसणारिउ हसति ।। धावंतु सहइ णं सरयमेहु । । ससहरकुरंगु उम्मग्गु लग्गु ।। अरुणा गुण- गण गणंति । । 2/5 Indrāņi (Wife of the Lord Indra) takes away the infant baby and hands him over to Lord Indra. मोत्तियदामालंकिय दुआर चूलाकलसाहय सरयमेहु मायामउ सिसु जिण जणणियाहे इंदाणिए लइयउ बालु जाम णं भवजलणिहि तारण तरंडु भत्ति परियंचिवि तिण्णिवार ।। पइसिवि हयसेणणरिंद गेहु ।। देविणु दुद्दम-तम-हणणियाहे । । णियणयणहिं हरिणा दिनु ताम || णं णिहिलामल-गुण-मणि- करंडु ।। रही थीं और कहीं-कहीं कृशोदरी देवियाँ मनोहारी (सोहर - ) गीत गा रही थीं। कहीं सरस्वती के रणन (गीत, नृत्य, संगीत) में रसिक, परस्पर में रमणीय बाहुओं को उठा रहे (ऊँचा करते थे और कहीं मल्ल दर्पपूर्वक परस्पर में भिड़ रहे थे। कहीं कुब्जक- समूह नृत्य कर रहे थे, तो कहीं गम्भीर वाद्य शब्द कर रहे थे। कहीं-कहीं गम्भीर तूरवादन रहा था, मानों दिग्नारियाँ ही हर्षोन्मत्त होकर विहँस रही हों। कहीं-कहीं धवलदेह धारी हंसपंक्ति दौड़ रही थी, वह ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों शरदकालीन मेघ ही सुशोभित हो रहे हों। कहीं-कहीं सिंह से भयभीत होकर मृग उन्मार्गगामी हो गया था, मानों चन्द्रमा में ही जाकर वह छिप गया हो। कहीं भौंरे रुणझुण शब्द करते हुए सुशोभित हो रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों वे अरिहन्त - जिनेन्द्र के गुणगणों की गणना ही कर रहे हों । घत्ता - इस प्रकार की शोभा सहित वे सभी देवगण सेवा को महान् मानते हुए, अपनी मुख- प्रभा से कमलों को भी नीचा (हेय) दिखाते हुए, वस्त्राभूषण से दीप्त होकर, चित्त में हर्षित होते हुए वाणारसी पुरी जा पहुँचे। (25) 30 :: पासणाहचरिउ 2/5 इन्द्राणी ने शिशु - जिनेन्द्र को इन्द्र के लिये सौंप दिया वाणारसी में मोतियों की माला से अलंकृत द्वार की भक्ति पूर्वक तीन बार प्रदक्षिणा देकर इन्द्राणी ने शरदकालीन मेघों को रोकने में समर्थ तथा मंगल कलश युक्त उच्च शिखरों वाले राजा हयसेन के राजभवन में प्रवेश किया। एक मायामयी शिशु माता को देकर इन्द्राणी दुर्दम अंधकार का हरण करने वाले बाल - प्रभु (पार्श्व) को जब ले आई, तब इन्द्र ने उसे अपने नेत्रों से स्वयं देखा। उसके मन में उसी समय ऐसी कल्पना उत्पन्न हुई कि मानों यह बालक भवजल से तारने के लिए जहाज के समान ही उत्पन्न हुआ है, अथवा मानों निर्मल गुणमणि रूप सम्पूर्ण
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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