________________
२१) समुदाय में रहें हुए साधु को उनकी भूल के लीए जब डाँट सुनने
मीले तो उस सदुपदेश पर विचार किये बीना, कषायो के कटु परिणामो को सोचे बिना, परमार्थ को पीछे रखकर, खानदानी को छोड, वचन सहन नहीं करके जो साधु समुदाय को छोडकर अकेला स्वतंत्र विचरने लगता है, वह इसलोक-और परलोक, दोनो में दुःखी होता है। मुनि को अति मात्रा में जब कामवासना सताये तब उसका निवारण करने के लिए मुनि निःसार आहार ले, उणोदरी तप करे, कार्योत्सर्ग करे, शीत-उष्ण-डंख आदि परिषहो को सहन करें, स्थान को छोडकर दुसरे, ग्रामानु ग्राम विहार करें अंत में भी जो विषयेच्छा दूर न हो तो, अंतमें आहार भी छोड देवे, (अपवादिक मार्ग रुप आत्महत्या भी करें) । लेकिन मुनि कीसी भी संयोगो में विषय सुख का सेवन न करे । क्योंकि इसमे
अपवाद मार्ग नही है। २३) पूर्व में कीए हुए दुष्कृत्यो के आचरण रुप अशुभ कर्म केवल घोर
तपश्चर्या करने से ही छूटते है। २४) उणोदरी के तीन प्रकार =
१. आहार और पानी की उणोदरी २. उपधि - उपकरण की उणोदरी ३. कषाय की उणोदरी वर्तमान में उत्तम संयम पालना यह तक्षक नाग के मस्तक में रहें हुए ज्वरहर मणि लाने जैसा असाध्य कार्य नहीं है, क्योंकि अन्य भी अनेक मुनियों नें ऐसा उत्तम सयंम का पालन दीर्धकाल तक
कीया ही है। २६) मुनि ‘कृशकाय' होते है, इससे उन्हे परिषहो को सहन करने में
सहायता होती है।
२५)