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करने से या अब्रम्हचारी होते हुए भी खुद को ब्रह्मचारी कहलाने से खुद के परम उपकारी को ही मारने से, दिक्षा लेनेवाले को धर्म से भ्रष्ठ करने से, तीर्थंकर-आचार्यादि की निंदा करने से, तपस्वी नही होते हुए भी खुद को तपस्वी कहलाने से, देव के दर्शन न होते हुए भी, मुझे ये देव देवी प्रत्यक्ष है में उन्हे देख सकता हुँ ऐसा करने से, अति काम अभिलाषा-अति माया-अति लोभ आदि करने से इस प्रकार के कुल ३० कार्यो से जीव ‘महा मोहनीय
कर्म' बांधता है। १२०) गुरु के आगे चलना, गुरु के समान आसन पर बैठना, गुरु से
पहेले गोचरी कर लेनी, गुरु के आने पर भी खडे न होना, गुरु के पूछने पर बैठे-बैठे ही उत्तर दे देना, गुरु के बुलाने पर सुनते हुए भी नहीं सुना ऐसा कर देना, गुरु के आसन-संथारे को पैर लगाना, गुरु के सामने बोलना, गुरु कीसीसे बात कर रहे हो तो बिच में बोलना आदि गुरु संबंधित ३३ आशातना का त्याग
करना चाहिए। १२१) अंर्तमुर्हत एक वस्तु में चित्त का स्थापन करना उसे जैनागम में
ध्यान कहा गया है । स्वाध्याय से प्रशस्त्र ध्यान की ओर जा सकते है।
५ श्री भगवती.सूत्र
१२२) सूत्र की शरुआत भाव मंगल रुप नवकार मंत्र के पांच पदसे की है
।अरिहंताणं के अलावा 'अरहंताणं' यानि जो थोडी भी आसक्ति रखते नहीं है वो, 'अरहयताणं' मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयो के संपर्क होते हुए भी जो अपना वीतराग भाव छोडते नही है वो