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३. ठाणांग सूत्र
श्रोताओ को श्रवण की विधि-निद्रा और विकथा करा छोडकर, गुप्ति से गुप्त होकर, अंजली जोडकर भक्ति और बहुमान पूर्वक, उपयोग रखकर गुरु के सानिध्य में नीचे बैठकर श्रवण करना
चाहिए। ८३) विनय, अभ्युत्थान और साधु सेवा में पराक्रम (पुरुषार्थ) करने से
सभ्यगदर्शन तथा देश या सर्व से विरती का लाभ होता है । ८४) 'आरंभ और परिग्रह' यह दो को जानकर छोडे बिना जीव
केवली प्ररुपित सम्यक धर्म को सम्यक तरह से समज नही
शकता है। ८५) साधु साध्वीओ को तमाम धर्म क्रियाएँ पूर्व या उत्तर दिशा के
सामने करनी या जिस दिशा में जिन चैत्य-प्रतिमा हो उनके
सामने करनी। ८६) साधु यवमध्याचंद्र प्रतिमा और वज्रमध्य प्रतिमा को धारण करे ।
यवमध्याचंद्र प्रतिमा यानि शुक्ल पक्ष की एकम से एक कवल आहार करके प्रतिदिन बढते बढ़ते पूर्णीमा को १५ कवल आहार करे फीर कृष्ण पक्ष की एकम को १५ कवल आहार करके, प्रतिदिन एक एक कवल आहार घटाते हुए अमावस को एक
कवल आहार करे इसे यवमध्याचन्द्र प्रतिमा कहते है। ८७) मति-श्रुत ज्ञानावरण और दर्शन मोहनीय की प्रकृतीओ को अनंत
भागो से समय समये छोडते हुए जीव पहले 'न' का लाभ प्राप्त करता है, इस प्रकार क्रमश: एक एक वर्ण (अक्षर) के लाभ को प्राप्ति करके क्रमश: विशुध्द बना हुआ जीव संपूर्ण नवकार को 'पद' से प्राप्त करता है।