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________________ योग-प्रयोग-अयोग/ ५९ २. ऐतिहासिक दृष्टि से योग का विश्लेषण भारतीय आध्यात्मिक विचारों की आदर्श पृष्ठभूमि पर दो संस्कृतियाँ बहत ही प्राचीन काल से अक्षुण्ण रूप में चली आ रही हैं-जैन-संस्कृति और वैदिक-संस्कृति। भाषा की दृष्टि से सबसे प्राचीन तथा अपने विकास और विस्तार तथा श्रमण-श्रमणियों की आचार प्रणालिका की दृष्टि से यह वह धारा है जिसको शास्त्र अर्थात् जैनागम कहना चाहिए। जिन लोगों का इस विचारधारा के साथ सम्बन्ध है उनके लिए आगम अन्तिम प्रमाण है। यद्यपि वैदिक संस्कृति के मूल ग्रंथ "वेद" लेखन कला की दृष्टि से प्राचीन माने जाते हैं, परन्तु उनकी भाषा को "संस्कृत" कहा जाता है। "संस्कृत" किसी का परिमार्जित रूप ही होता है। अतः वैदिक संस्कृत से प्राकृत की प्राचीनता भाषा शास्त्रसम्मत एक महान् तथ्य है। उपलब्ध जैन-साहित्य का प्राकृत (अर्द्धमागधी) में होना जैन-साहित्य की प्राकृत परम्परा की ओर सबल संकेत करता ___जैन तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव का काल जैनकालगणना के अनुसार असंख्य वर्ष पूर्व का माना जाता है ।१३भगवान् ऋषभदेव के प्रवचन ही पहली बार जैन-आगमों के रूप में उदित हुए थे। वे प्राकृत में थे, अतः जैन साहित्य की प्राचीनता वेदों से भी पूर्व मानने में आपत्ति नहीं हो सकती। ___ वेद-साहित्य प्राचीन है, इसमें संदेह नहीं परन्तु डॉ. राधाकृष्णन ने “हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र [History of Dharmashastra Vol. V. Part II P. 995] में यह सिद्ध किया है कि यजुर्वेद में ऋषभ१४अजितनाथ और अरिष्टनेमि का उल्लेख प्राप्त होता है। ___पंडित कैलाशचन्द्र जी ने भी अपने "जैन-साहित्य का इतिहास" की पूर्व पीठिका पृष्ठ १०७ पर डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी का समर्थन करते हुए ऋषभदेव का वेदों में उल्लेख स्वीकार किया है। यह उल्लेख प्रमाणित करता है कि वेद ने अपने से पूर्व की जैन परम्परा के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का उल्लेख करके जैन संस्कृति की सत्ता का वैदिक-साहित्य से पूर्व होना सिद्ध किया है ।१५ १३. उसभ सिरिस्स भगवओ चरिमस्स य महावीर वद्धमाणस्स एगा सागरोवमकोडाकोडी आबहाए अन्तरे पण्णत्ते। समवायांग १७३;"कोडाकोडी" "सागरोपम" यह जैन पारिभाषिक शब्द हैं । उक्त पाठ एक कोडाकोडी (करोड़ xकरोड़) सागरोपम कालको अन्तर बतलाता है जो औपमिक काल गणना से ही समझा जा सकता है। १४. (उन्नत ऋषभो वाहनः २४/७) तत्राह उब्बटो भाष्यकारः उन्नतः उच्चः ऋषभः पुष्टः वामनः बहून्यपि वयसिगते वृद्धि रहितः । इसी प्रकार-(रोहिदृषभाय गवयी-२४/३०) : की व्याख्या में उब्बट कहते हैं-ऋषभाय तदाख्य देवाय । १५. स्थानांगसूत्र-आचार्य आत्मारामजी महाराज कृत हिन्दी अनुवाद पृ. ५ भा. १
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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