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________________ ४. साहित्य के मुख्य दो पहलू व्याकरण और इतिहास योग संयोग में १. सहज निवृत्ति भोग को शुभयोग में और शुभयोग को अयोग में प्रयोगात्मक रूप से परिवर्तित करती है। योग अर्थात् जुड़ना-राग जब अनुराग में परिवर्तित होता है, तब साधक अनासक्ति योग में जुड़ता है। अतः आसक्ति से अनासक्त होने की जो प्रवृत्ति है वह प्रयोग है। जैसे ही योग दृढ़ होता जायेगा अनासक्ति की वृद्धि में सामर्थ्य स्वतः सिद्ध होता जायेगा। क्योंकि अनासक्ति में आसक्ति से असंग होने की शक्ति है। आसक्ति अर्थात् भोगेच्छा । साधक के लिए भोगेच्छा से असंग होना ही स्व स्वरूप दर्शन है। अयोग की सांधना है। १. व्याकरण की दृष्टि से योग समाधि और संयोग संस्कृत व्याकरण के अनुसार योग शब्द युज् धातु और धञ प्रत्यय से निष्पन्न हुआ है। धातु १. समाधि १ और २ संयोग र दो अर्थ में घटित होती है। "योजन योगः सम्बन्ध इति यावत्" तथा "युज्यते इति योग" निर्युक्ति और वृत्तिकार के अनुसार भी समाधि और संयोग दोनों अर्थ फलित होते हैं । साध्य साधन में अर्थ घटन १. योगः समाधिः सोऽस्यास्ति इति योगवान् । ३ २. युज्यते वाऽनेन केवल ज्ञानादिना आत्मेति योगः ४ यहाँ समाधि अर्थ में योग सांध्यरूप से निर्दिष्ट है और संयोग अर्थ में साधन रूप से परिलक्षित होता है। क्योंकि मानव मात्र साधक है और प्रत्येक परिस्थिति में किसी न किसी का संयोग अनिवार्य है। अतः परिस्थिति जैसी होगी उसी रूप में घटना का संयोग होगा, वही संयोग साधन रूप माना जायेगा। 'योग', संयोग और साधन दोनों में निहित है, संयोग स्वाभाविक रूप से प्रत्येक मानव में विद्यमान होने पर भी भोग रूप परिस्थिति की दासता जन्म-जन्म से स्वीकार करता आया है। इस दासता के कारण योग संयोग और साधन में विद्यमान होने पर भी जागृत नहीं हो पाता। भोग युक्त मानव प्रत्येक परिस्थिति को जीवन बना लेता है उसे यह भी बोध आवश्यक है कि १. युजिंच समाधीगंण-४ २. युनृपीयोगे गण- ७ ३. उत्तराध्ययन सूत्र बहद्वृत्ति११/१४ ४. आवश्यक हरिभद्रया निर्युक्ति अवचूर्णिः पृ. ५८२
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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