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________________ ४४ / योग-प्रयोग-अयोग सम्प्रज्ञात नहीं । जबकि "चित्तवृत्तिनिरोध" इतना लक्षण किया है तब तो कुछ चित्तवृत्तियों का निरोध और सकल चित्तवृत्तियों का निरोध ऐसा अर्थ निकलता है, जो क्रमशः उक्त दोनों योग में घट जाता है। इसी विषय को लक्ष में रखकर उपाध्यायजी कहते हैं कि सर्व शब्द का अध्याहार न किया जाये या किया जाये, उभयपक्ष के सूत्रगत लक्षण अपूर्ण है। क्योंकि अध्याहार न करने में सम्प्रज्ञात योग का तो संग्रह हो जाता है। पर विक्षिप्त अवस्था जो सूत्रकार को योग रूप में इष्ट नहीं है और जिनमें कुछ चित्तवृत्तियों का निरोध अवश्य पाया जाता है, उनमें अतिव्याप्ति होगी। यदि उक्त अतिव्याप्ति के निरास के लिए अध्याहार किया जाये तो सम्प्रज्ञात में अव्याप्ति होगी, क्योंकि उसमें सब चित्तवृत्तियाँ नहीं रुक जाती। इस तरह "सर्व" शब्द का अध्याहार करने में या न करने में दोनों तरफ रज्जुपाशा होने से “क्लिष्ट' पद का अध्याहार करके "योगः" क्लिष्ट चित्तवृत्ति निरोधः इतना लक्षण फलित करना चाहिए, जिसमें न तो विक्षिप्त अवस्था में अतिव्याप्ति होगी और न सम्प्रज्ञात में अव्याप्ति । इस प्रकार क्लिष्ट, राजस और तामस वृत्तियों से युक्त जो चित्तवृत्ति है उसे पाँच समिति, तीन गुप्तिरूप धर्मव्यापार से नियन्त्रित करना अथवा आसव का निरोध करना संवर योग है। अतः उपाध्यायजी के अनुसार "समितिगुप्ति साधारणधर्म व्यापार त्वमेव योगत्वम् ४९ जो धर्म व्यापार अर्थात् सद्भावोन्मुख या चेतनाभिमुख क्रिया-समिति गुप्ति स्वरूप है वही योग है, क्योंकि उसी से मोक्ष लाभ होता है। - इस तरह गुप्ति और समिति योग मुक्तिमार्ग के प्राप्त कराने में प्रमुख हेतु है। अतः चित्तवृत्ति निरोध लक्षण में जो भी बाधाएँ प्राप्त होती हैं उनका निराकरण समिति-गुप्ति के यथार्थ स्वरूप को समझ लेने पर ही हो सकता है। यहाँ इतना अवश्य ध्यान रहे कि मनः समिति में मन की शुभ प्रवृत्तियाँ प्रधान हैं और मनोगुप्ति में मन की एकाग्रता और निरोध मुख्य है। प्रमाण का लक्षण एवं जैन विचारधारणा प्रथम पाद सूत्र ५ से ११ तक में पाँच वृत्तियों का निरोध करने योग निरूपण किया गया है। इन सूत्रों की समीक्षा, इस पर उपाध्याय जी ने अपनी कलम चलायी है कि इस प्रकार की ही एक सूत्रकार ने वृत्तियों के.पाँच भेद किये हैं- १ प्रमाण, २. विपर्यय, ३. विकल्प, ४. निद्रा और ५. स्मृति, किन्तु ये वृत्तियाँ तात्विक नहीं हैं। केवल उनकी रुचि का परिणाम मात्र है। वस्तुतः प्रमाण और विपर्यय ये दो चित्तवृत्तियाँ ही सम्भव हैं। पिछली तीनों वृत्तियाँ यथार्थ तथा अयथार्थ उभयरूप देखी जाती है। अतः उनका समावेश उक्त दोनों वृत्तियों में हो जाता है। इस दृष्टि से वृत्ति के दो ही विभाग ४९. उपाध्याय यशोविजयजी कृत व्याख्योफेत पातञ्जलि योगदर्शन पृष्ठ २
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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