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________________ ३६ / योग- प्रयोग - अयोग इस प्रकार के भावों के उत्पन्न होने पर जीव धीरे-धीरे सत्य का पूर्ण साक्षात्कार कर लेता है अतः जैनदर्शन में यौगिक प्रयोग प्रणालिका में सम्यग्दर्शन का स्थान सर्वोपरि है । सम्यग्दर्शन के पश्चात् सम्यग्ज्ञान का भी स्थान उतना ही महत्वपूर्ण है। प्रमाण ★ और नयों के द्वारा जीवादि तत्वों का संशय विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित यथार्थ बोध सम्यगज्ञान कहलाता है । ५ सम्यग्ज्ञान सम्यग्ज्ञान का अर्थ है - सत्यज्ञान । यहाँ सत्यज्ञान से तात्पर्य घटपटादि संसारिक वस्तुओं को जानना मात्र नहीं है अपितु मोक्षप्राप्ति में सहायक तथ्यों का ज्ञान अभिप्रेत है अर्थात् सम्यग्दर्शन से जिन ९ तथ्यों पर विश्वास किया गया था उनको समुचित रूप से जानना । सम्यक चारित्र समस्त सावद्य-सपाप व्यापारों (मन-वचन-काया) के योगों का ज्ञान पूर्वक त्याग करना चारित्र है। चारित्र जब सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानपूर्वक कषायादि भाव अर्थात् राग द्वेष और योग की निवृत्ति होने पर स्वरूप रमणतायुक्त होता है तब वही प्रयोगात्मक चारित्र सम्यकचारित्र कहा जाता है । ! सम्यक्चारित्र से समाधि सिद्ध होती है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन धारणा स्वरूप, सम्यग्ज्ञान ध्यान स्वरूप और सम्यग्चारित्र समाधि स्वरूप सिद्ध होता है। धारणायोग से किसी भी शुभ ध्येय में चित्त को स्थित करने की कला प्राप्त होती है और उसके ध्यान की कला प्रगट होती है। श्रुतज्ञान के योग से भावना ज्ञान की प्राप्ति होती है और भावना के सातत्य से ही ध्यान की सहज प्राप्ति होती है। ध्यान और ज्ञान की अभिरुचि की तीव्रता बढ़ते ही तन्मयता सिद्ध होती है एवं सूक्ष्म अर्थ के पर्यालोचन से संवेग और स्पर्श योग की प्राप्ति होती है। इस प्रकार "योग" तत्वज्ञान की प्राप्ति का परम उपाय है। अध्यात्म मार्ग का आधार है' और कुशल प्रवृत्ति का प्राण है । ९ ५. तत्त्वार्थ राजवर्तित - १/१/२ ६. तत्त्वार्थ राजवार्तित - १/१/२ ७. षोडशक- १४ श्लो. १ की टीका ८. योगशतक श्लो. १ की टीका ९. योग बिन्दु श्लो. ६८
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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