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________________ १४/योग-प्रयोग-अयोग । योगश्चितवृत्ति निरोधः इस सूत्र में कलेशान्क्षिणोति स एव योगः कहकर सूत्रकार को वृत्ति निरोध से क्लेशादिकों का नाश करने वाला निरोध ही अभीष्ट है। अतः स्पष्ट है कि चितगतक्लेशादिरूप वृत्तियों का यहाँ निरोध स्वीकार किया गया है और उसे योग कहा है। जैन दर्शन के अनुसार इसी को ही आश्रक्-निरोध रूप संवर शुभयोग कहा जाता है। अर्थात् मनः समिति से मन की शुभ प्रवृत्ति और मनः गुप्ति से मन की एकाग्रता एवं मनोनिरोध अर्थ घटित होता है। इस प्रकार समिति-गुप्ति से मन की प्रवृत्ति, मन की स्थिरता और मनोवृत्ति का निरोध दृष्टिगोचर होता है। ___ मन की शुभ प्रवृत्ति से समाधि का प्रारम्भ होता है, मन की स्थिरता अर्थात् एकाग्रता से समाधि की प्राप्ति होती है और मनोवृत्ति के निरोध से समाधि के फल की उपलब्धि होती है । इस प्रकार समिति-गुप्ति रूप आगम सम्मत संवरयोग और चित्तवृत्तिनिरोध रूप में कोई भिन्नता प्रतीत नहीं होती । क्योंकि समाधि की प्राप्ति एकाग्रता से होती है और ऐसी एकाग्रता सयोगी केवली की अवस्था में ही प्राप्त होती है। समाधि का फल यह अयोगी केवली की अवस्था है जिससे मोक्ष की उपलब्धि होती है। इस प्रकार शुभ. योगारम्भ में सत्प्रवृत्ति रूप मनः समिति और विकल्प रहित निर्विकल्प अवस्था में मनोगुप्ति संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात रूप से स्पष्ट परिलक्षित होती है। इस प्रकार जैनागमों में पाँच महाव्रतों का समावेश अहिंसा से, पाँच समिति का समावेश संयम से और तीन गुप्ति का समावेश तप से किया है जैसे-धम्मो मंगलमुक्किलै अहिंसा संजमो तवो२३पातंजल दर्शन में जो स्थान यम का है वही स्थान जैन दर्शन में महाव्रतों का है। पाँच इन्द्रिय, चार कषाय और तीन योग का जय यह सयम रूप नियमन हुआ। छः प्रकार के आभ्यंतर और छः प्रकार के बाह्य तप से योगांग में समाधि तक कार्य सिद्ध होता है। अतः दशवैकालिक आगम की एक ही पंक्ति में अहिंसा, संयम और तप रूप त्रिपुटि से संपूर्ण योग मार्ग का उद्घाटन हो जाता है। इसी एक सूत्र में ही योग सूत्र और व्यासभाष्य के संप्रज्ञात योग और असंप्रज्ञात योग भव प्रत्यय और उपाय प्रत्यय, श्रद्धा, वीर्य, स्मृति समाधि और प्रज्ञा आदि से प्राप्त लाभ पर्याप्त मात्रा में भरा हुआ प्राप्त होता है। - जिस प्रकार योग दर्शन में चित्त की एकाग्रता से बाह्य वृत्तियों का निरोध, क्लेशों का त्याग, कर्म बन्धनों का क्षय और समाधि रूप शान्ति की प्राप्ति का बोध कराया है उसी प्रकार जैनागमों में आश्रव रूप योग का निरोध करके संवर रूप शुभयोग से २३: दशवैकालिक-१/१
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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