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________________ १०/योग-प्रयोग-अयोग है। निर्विकल्प दशा में चित्त वृत्तियों का निरोध होता है और इसी को शुभयोग या शुद्धयोग कहा जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र का "चित्त-निरोह" शब्द ही पातंजल योग दर्शन में चित्त वृत्ति निरोध अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। उत्तराध्ययन सूत्र के इस “चित्त निरोह" शब्द से साधक चित्त की एकाग्र दशा को प्राप्त करता है। इस दशा में शुभयोग के उत्कर्ष से बाह्य वृत्तियों का निरोध होता है, अशुभ योग का संवरण होता है और कर्मबन्धन शिथिल होते हैं । इस प्रकार जीवन के विकास क्रम में प्रकर्ष की प्राप्ति का आधारस्तम्भ आस्रव का निरोध संवर रूप योग है। इसी अध्याय के तिरेपनवें सूत्र में तो परमात्मा ने यौगिक प्रयोग से अयौगिक प्रक्रिया का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि-योग से ही योग की विशुद्धि होती है ।१६ मन, वचन और कायिक प्रयत्न की सत्यता से योग को विशुद्ध किया जाता है। योग की निरुद्धता से मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति होती हैं । जैसे मनोगुप्ति से साधक एकाग्रता को प्राप्त करता है। एकाग्रता से प्रायः तीन लाभ होते हैं १. अशुभ विकल्प से मुक्ति २. समभाव की पुष्टि और ३. विशुद्ध संयम की वृद्धि । वचनगुप्ति से साधक निर्विचार भाव को प्राप्त करता है। निर्विचार भाव से भी प्रायः तीन लाभ होते हैं - १. अशुभ वचन से निवृत्ति और शुभ वचन में प्रवृत्ति २. प्रायः मौन की आराधना और . ३. अज्झण्ण-जोग-ज्झाण-जुत्तो-अर्थात् अध्यात्मयोग के साधनभूत ध्यान से युक्त। कायगुप्ति से जीव आस्रव का निरोध और संवर की प्राप्ति करता है। संवर की प्रवृत्ति से प्रायः तीन लाभ होते हैं१. अशुभकायिक प्रवृत्तियों का निरोध २. शुभकायिक चेष्ठा में प्रवृत्ति या काय में प्रवृत्तमान और ३. पापों के आवागमन का निरोध (१७ १६. जोग-सच्चेणं जोगं विसोहेइ - उत्त. २९/५३ १७. उत्तरा. अ. २९, गा. ५४-५६
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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