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________________ ६/योग-प्रयोग-अयोग कर्ता और कर्मों का भोक्ता माना जाता है। जिस घटना के साथ हम जुड़ जाते हैं, वही घटना हमारे लिए सुख और दुःख का हेतु बमती है। सर्व सामान्य प्रत्येक प्राणी में सुख और दुःख, संयोग और वियोग, प्रिय और अप्रिय परिस्थिति का प्रवाह धूप और छांव की तरह आता जाता रहता है। जो भी परिस्थिति प्रवर्तमान होती है वह योग के माध्यम से घटती है और कर्म पुद्गलों के समूह रूप से कषाय भाव में आकर बंध जाती है। इस निमित्त से अमूर्त आत्मा मूर्त रूप को धारण करता है। इस प्रकार आत्मा न केवल मूर्त है और न केवल अमूर्त है किन्तु दोनों का मिला-जुला अमूर्त के साथ मूर्त का जुड़ा हुआ स्थान है। मन, वचन और कायिक परिस्थिति के परिवर्तन से ही परिणाम का लेखा-जोखा किया जा सकता है। -: आचारांग इस विषय पर खेद व्यक्त करता है कि साधक के द्वारा मन-वचन-काय की यौगिक क्रिया सुलझी हुई नहीं है। एतदर्थ अनेक यौनियों में जन्म और मृत्यु का अनुभव वह करता रहता है । ६.११ वर्तमान जीवन की रक्षा के प्रयोजन से, प्रशंसा, आदर तथा पूजा पाने के प्रयोजन से, भावी जन्म की उधेड़-बुन के प्रयोजन से, वर्तमान में मरणभय के प्रयोजन से तथा परम शान्ति पाने और दुःख को दूर करने के प्रयोजन से, मन, वचन और कायिक क्रिया का प्रयोग किया जाता है। ऐसे प्रयोग से तथा हिंसात्मक क्रियाओं की विपरीतता से हित और अहित का बोध नहीं रहता। अतः मानव अनेक जीवों की हिंसा करता है, अनेक जीवों को अपना गुलाम बनाता है, अनेक जीवों पर अपना शासन जमाता है, अनेक जीवों को ताड़न, तर्जन और पीड़ा पहुँचाता है। ऐसी विपरीत क्रियाओं का मापदंड है-हिंसा और अनुकूल क्रियाओं का मापदंड है-अहिंसा । इस प्रकार मन, वचन और काय की क्रियाओं का उचित और अनुचित प्रभाव दूसरों पर पड़ता भी है और नहीं भी पड़ता, किन्तु अपने आप पर तो उसका प्रभाव अवश्य पड़ता है। वे क्रियाएँ मानव का अंग बन जाती हैं, इसे ही कर्म कहा जाता है। जिससे जीव सुख और दुःख का अनुभव करता है। हिंसा व्यक्तित्व को विकृत करती है, ऊर्ध्वगामी ऊर्जा का ध्वंश करती है, और जन्म-मरण का संवर्धन करती है। फलतः स्व और पर के दुःखात्मक जीवन का हेतु बनती है तथा विस्तृत चेतना को सिकोड़ कर ६. अपरिण्णायकम्मे खलु अयं पुरिसे --------- विरुवरूवे फासे पडिसंवेदयति। आचा. अ. १, उ. १ सु.६ ७. आचा. अ. १, उ. १, सु. ७
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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