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________________ २४४ / योग-प्रयोग-अयोग ___जो फूल टूटा है उसमें भी आवेगों के अति तीव्रता के भाव प्रतीत होते हैं । फूल के टूटने के दस घंटे के बाद आवेगों का मंद भावं हो जाता है और उसके दस घंटे के बाद आवेग समाप्त हो जाते हैं। क्रेस्कोग्राम का आविष्कार हुआ और पौधों में सुख, दुःख की संवेदना का सबूत विज्ञान युग में जगदीशचन्द्र वसु ने दिया, सभी ने स्वीकार कर लिया किन्तु परमात्मा महावीर ने तो आचासंग सूत्र के प्रथम अध्याय में ही पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीव विज्ञान को प्रस्थापित किया है। इस प्रकार आवेगों का प्रभाव हमारी अंतःस्रावी ग्रंथियों पर पड़ता है क्योंकि ग्रन्थियों का कार्य है हारमोन्स उत्पन्न करना, उत्पन्न रसों को रक्त में मिश्रित करना तथा अपने शरीर तन्त्र पर नियन्त्रण बनाए रखना। इन ग्रन्थियों से उत्पन्न हारमोन्स जब रक्त में मिश्रित हो जाते हैं तो हमारे विचार और आचार पर उसका प्रभाव गहरा होता है। आचार, विचार का सम्बन्ध श्वसन क्रिया से गहरा है। पहले वैज्ञानिक अपने प्रयोग में सूक्ष्म दर्शक यन्त्र का प्रयोग करते थे अब इन यन्त्रों के साथ मन का भी प्रयोग हो रहा है। आचार-विचार श्वसन आदि सिद्धान्त के आधार पर मस्तिष्क की विभिन्न अवस्था का निर्देश पाया जाता है जैसे कार्डियोग्राम द्वारा हृदय की गति का मापदंड निकाला जाता है वैसे ही चित्त की अवस्थाओं का निर्देश मिलता है कि व्यक्ति का मन शान्त है या विक्षिप्त है, वह भावी की कल्पना के लिए सोचता है या अतीत का रोना रोता है। वह ध्यान में है या निद्रा में, एकाग्रता में है या विकल्पों की उधेड़बुन में इत्यादि मूर्च्छित और जागृत चित्त की अवस्था से काम, क्रोध, मद, लोभ, आनन्द, शान्ति, प्रेम आदि आवेगों का स्थूल शरीर पर प्रभाव अंकित होता है। इन आवेगों का प्रथम प्रहार मस्तिष्क पर होता है, अनुकूल आवेग हो तो नाड़ीतन्त्र का शोधन होता है, प्रतिकूल आवेगों से नाड़ीतन्त्र में गड़बड़ी होती है। दूसरा प्रहार हृदय पर पड़ता है। अनुकूल आवेग से रक्त संचार का शोधन होता है प्रतिकूल आवेगों से रक्त संचार अस्तव्यस्त हो जाता है। तीसरा प्रहार एड्रिनल ग्रंथि (स्वाधिष्ठान चक्र) पर पड़ता है जिससे वीर्य शक्ति का नाश होता है। इन आवेगों का प्रभाव आहार, निद्रा, कामुकता, लोलुपता आदि पर त्वरित गति से होता है जिससे तीव्र और मंद रूप में स्थूल शरीर में वृत्तियों का परिवर्तन पाया जाता है। आहार, निद्रा, कामुकता, लोलुपता, में वृत्ति यदि तीव्र है तो ध्यान साधना के लिए बाधक तत्त्व है। ध्यानयोग में आहार की मात्रा-अल्प, सात्त्विक, पथ्यकारी और अनुकूल आवश्यक है। मरिष्ठ और वरिष्ठ भोजन हो तथा असात्त्विक और प्रतिकूल भोजन हो, उसे पचाने में हमारी ऊर्जा का विशेष हास होता है। मन विक्षिप्त रहता है,
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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