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________________ २४०/ योग-प्रयोग-अयोग जन्मों तक तप करके जितने कर्म खपाता है, सम्यकज्ञानी साधक मन, वचन और काया को संयत रखकर सांस मात्र में ही उतने कर्म खपा देता है। इस प्रकार जो भी साधक अतीतकाल में मोक्ष पधारे हैं, वर्तमान में मोक्ष प्राप्त कर रहे हैं, अथवा भविष्य में मोक्ष पधारेंगे इत्यादि समस्त प्रभाव सामायिकादि हैं। क्योंकि तीव्र जप, तीव्र तप या मुनिवेश को धारणकर स्थूल बाह्य क्रियाकांड रूप चारित्र की चाहे जितनी प्रतिपालना करें किन्तु समतारूप सामायिक के अभाव से उसे मोक्ष की प्राप्ति असंभव है। सामायिक तो समता का सागर है। जो साधक समता सागर में स्नान करता है वह सामान्य श्रावक होने पर भी साधु के समान कार्य कर सकता है। इस विषय में आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में अपना मंतव्य स्पष्ट किया है कि सामाइयम्मि ड कए समणो इव सावओ हवई जम्हा। पर्यण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्जा ।१४ व्रत का पूर्णतः प्रतिपालन करने से श्रावक भी साधु जैसे ही प्रक्रिया कर सकता है। अर्थात् वह भी आध्यात्मिक श्रेष्ठ स्थिति को प्राप्त कर सकता है। अतः श्रावक का कर्तव्य है कि वह अधिक से अधिक सामायिक करे और समता रस का आस्वादन ले। ____ चंचल मन का नियन्त्रण करने के लिए समत्व योग रूप सामायिक व्रत की आराधना होती है जिससे अशुभ कर्मों का क्षय होता है। आचार्यों ने इस समत्वरूप सामायिक का यहाँ तक महत्व दिया है कि, देव भी अपने हृदय में इस सामायिक व्रत स्वीकार करने की तीव्र अभिलाषा रखते हैं और ऐसी भावना करते हैं कि इस समत्वरूप सामायिक का आचरण हो सके तो मेरा देव-जन्म सफल हो जाये। अतः जैनशास्त्र के अनुसार देवों की अपेक्षा मानव आध्यात्मिक भावनाओं का प्रतिनिधि हैं। समत्व योग रूप सामायिक की प्राप्ति का श्रेय देवों को नहीं किन्तु मानवों को ही है। अतः सामायिक की साधना का अधिकार साधक के लिए देशत: या सर्वतः विरति आवश्यक है। विरति अर्थात् ज्ञान, श्रद्धापूर्वक त्याग, मोहपाश में आबद्ध आत्मा को पौद्गलिक वस्तुओं में जो रति उत्पन्न होती है उसका मन, वचन, काया से निर्गमन करना विरति है। यह विरतिरूप साधना योग की साधना है। समभाव के प्रभाव से वैर करने वाले क्रूर जीव भी अपने जन्मजात वैर को भूल जाते हैं । समवसरण में स्थित सिंह खरगोश भी उस समता मूर्ति के प्रभाव से विस्मरण कर वीतराग वाणी का पान करते हैं ; हरिणी तो सिंह के बालक को अपने पुत्र की बुद्धि से स्पर्श करती है और प्यार करती है। गाय व्याघ्र के बच्चों को स्नेह १४. सामायिक सूत्र भा. १ - पृ. १२१
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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