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________________ 'योग-प्रयोग-अयोग/२३१ निष्क्रिय और इन्द्रियातीत ध्यान धारणा से विमुख होकर ध्येय में अन्तर्मुख रहता है उसे भी शुक्लध्यान कहा है ।५७ आठ प्रकार के कर्ममल का शोधन शुक्ल ध्यान हैं इस विषय में विशेष जानकारी के लिए अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं ।५९. शुक्लध्यान के प्रकार पृथकत्व-वितर्क-सविचारी शुक्लध्यान का प्रथम प्रकार पृथक्त्व-वितर्क - सविचार हैं । यह पद तीन शब्दों के योग से बना हुआ है - पृथकत्व का अर्थ है एक द्रव्य के आश्रित उत्पाद आदि पर्यायों का पृथक् - पृथक भाव से चिन्तन करना। वितर्क शब्द श्रुतज्ञान का परिचायक है, सविचारी का अर्थ है - शब्द से अर्थ में, अर्थ से शब्द में तथा एक योग से दूसरे योग में संक्रमण करना । जड़ या चेतन द्रव्य उत्पत्ति, स्थिति और द्रव्यादि में मूर्त-अमूर्त पर्यायों का नैगम आदि नयों के द्वारा भेद-प्रभेद का चिन्तन करना और यथासम्भवित श्रुतज्ञान के आधार पर किसी एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य पर, किसी एक पर्याय से दूसरे पर्याय पर, किसी एक शब्द से दूसरे शब्द पर, किसी एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर तथा किसी एक योग से दूसरे योग पर विचारधारा को प्रवाहित करना, इत्यादि विचार सहित ध्यान को ही सविचारी कहा जाता है ।६० एकत्व - वितर्क - अविचारी एकत्व - वितर्क - अविचारी । लक्षण तीन शब्दों से बना हुआ है । उत्पादादि पर्यायों के एकत्व अभेद वृत्ति से किसी एक पर्याय का स्थिरं चित्त से चिन्तन करना एकत्व है। इस ध्यान में अर्थव्यंजन एवं योगों का संक्रमण नहीं होता। निर्वात स्थान में रहा हुआ दीपक जैसे स्पंदन आदि क्रियाओं से रहित होकर प्रकाश करता है, ठीक उसी प्रकार आत्मा योग़ आदि में संक्रमण न करता हुआ ध्यान में अवस्थित रहता है। इस ध्यान के द्वारा मोहकर्म सर्वथा क्षय हो जाता है। यही ध्यान बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव में पाया जाता है ।६१ योगशास्त्र में एकत्व-वितर्क-अविचार के स्थान पर एकत्व श्रुत अविचार शब्द मिलता है। पहला और दूसरा शुक्लध्यान सामान्यतः पूर्वधर मुनियों को ही होता है ५७. ज्ञानार्णव - ४२/४ ५८. भावपाहुड - टीका गा. ७८ ५९. भगवती सूत्र सटीक, औपपातिक सूत्र वृत्ति, आवश्यक चूर्णि, विशेष आवश्यक भाष्य, धर्म-संग्रह सटीक, गच्छाचारपयन्ना टीका इत्यादि ग्रन्थ।। ६०. स्थानांग सूत्र वृत्ति स्था. १. उ. १, सूत्र २४० पृ. १९१ ६१. स्थानांगसूत्र वृत्ति स्था. ४. उ. १, सू. २४७ पृ. १९१
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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