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________________ योग-प्रयोग-अयाग/२१५ इस ध्यान से भोगी जुड़ा हुआ है, भोग में रोग छाया हुआ है। इस प्रकार रुग्ण मानव पीड़ा से ग्रसित रहता है । मृत्यु के भय से त्रसित रहता है, प्रचुर दुख से घिरा हुआ रहता है और तनाव में बहता रहता है। कौन इस ध्यान से बचा है छोटा हो या बड़ा हो, ऊँच हो या नीच हो, गरीब हो या धनवान हो, ज्ञानी हो या अज्ञानी हो सभी इसके शिकंजे में फंसे हुए हैं। आर्तध्यान आर्तध्यान की भावना में दीनता, मन में उदासीनता, निराशा और व्याकुलता से क्षोभ होता है अतः जब मनोज्ञपदार्थों के वियोग से शोक उत्पन्न होता है तब मन अशुभ हो जाता है इस अशुभ मन के संस्कार जमा हो जाते हैं उसे आर्तध्यान कहा जाता है। आर्तध्यान के कारण आर्तध्यान के चार कारण हैं१. अणुमान संपयोग-अमनोज्ञ संयोग-अनचाहा संयोग, अनिष्ट संयोग । २. मणुन्न संपयोग-मनोज्ञ वियोग-मनचाहा वियोग, ईष्ट वियोग ३. आयंका संपयोग-आर्तक संप्रयोग-रोग, चिन्ता, व्याधि और भय, चिन्ता.। ४. परिजसिय काम-भोग संपयोग-कामभोग संप्रयोग - भोगोपयोग की चिन्ता। आर्तध्यान के लक्षण आर्तध्यान के चार लक्षण हैं१. क्रन्दनता-रोना, विलाप करना, चिल्लाना । २. शोचनता-शोक करना, चिन्ता करना ३. तिप्पणता-आंसू बहाना, ४. परिवेदणा-हृदय को आघात पहुँचाए ऐसा शोक करना । आर्तध्यान के स्वामी आर्तध्यान के स्वामी अविरति, देशविरति और प्रमत्तयुक्त सयति (साधुमुनि महात्मा) होते हैं । यह ध्यान सम्पूर्ण प्रमाद का मूल है। अतः योगी महात्माओं के लिए सर्वथा हेय है। प्रमत्त योगी तक इस आर्तध्यान का आधिपत्य होने से एक से लेकर छठा गुणस्थान तक उक्त ध्यान संभवित है। विशेषतः प्रमत्तसंयत गुणस्थान में निदान के १९. ध्यानशतक मा. १०-१३.
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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