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जिनकल्प भावना के प्रकार
बृहत्कल्प भाष्य में आचार्य संघदासगणी ने जिनकल्प भावनाओं का विस्तृत विचरण किया है । जैसे
"तवेण सत्तेण सुत्तेण एगत्तेण बलेण य ।
तुलणा पंचहा कुत्ता जिण कप्पं पडिवज्जओ २ ॥
योग- प्रयोग - अयोग / २०३
अर्थात् तप, सत्व, सूत्र, एकत्व तथा बल इत्यादि भावनाओं से भावित जिनकल्पी होते हैं "दुक्खेण पुट्ठे धुवमायरज्जा २६ दुख आने पर ध्रुवता, धैर्य धारण करना इन योगियों का उद्देश्य होता है। इन योगियों का धैर्यबल सीमातीत होता है जैसे
घिइ बल पुरस्सराओ, हवंति सव्वावि भावणा एता । तंतुन विज्जइ सज्जं जं घिहमंतो न साहेई ॥२७॥
धैर्यबल से जिनकल्प मुनि प्रत्येक कष्ट सहने में सफल होते हैं ।
२. संवेग भावना
संवेग अर्थात् मोक्ष के प्रति रुचि अनित्यादि बारह भावनाएँ संवेग भावनाएँ हैं । इन भावनाओं का वर्णन आगम और साहित्य में विस्तृत ढंग से प्राप्त होता है किन्तु संवेग भावना के रूप में व्यवस्थित नहीं मिलता है। यद्यपि आगम का मूल विषय ही सम, संवेग और निर्वेद है अतः दर्शन, ज्ञान और चारित्र मूलक विचार और भावनाएँ प्रतिक्षण मुखरित होती हों तो इसमें कोई विलक्षण बात नहीं क्योंकि अनेक शास्त्र हैं, जिसमें आध्यात्मिक अनित्यादि भावनाओं का सम्बोधन किया गया है किन्तु उसका वर्णन - यत्र-तत्र बिखरा हुआ है। हमें इन बिखरे हुए मोती की एक माला तैयार करनी है जिसका योगसाधना में सम्पूर्ण सहयोग है ।
संवेग भावना के प्रकार
१. अनित्य भावना,
३. संसार भावना, ५. अन्यत्व. भावना,
२. अशरण भावना,
४. एकत्व भावना,
६. असुचि भावना,
२५. बृहत्कल्प भाष्य श्लो. १२८० से १२९० तथा १३२८ से १३५७
(भगवती आराधना १८७ से २०३) (पंचास्तिकायतार्त्ववृत्ति-१७३/२५४/१३) (नियमसार मूल १०२ ). ( भावपाहुड मू. ५९)
२६. सूत्रकृतांग- १/७/२९
२७. बृहत्कल्प भाष्य- गा. १३५७