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________________ २००/ योग-प्रयोग-अयोग युक्त चित्त, करुणा अर्थात् दीन, हीन, जनों के प्रति दयाभाव रूप मैत्री - अनुकम्पा युक्त चित्त ; और माध्यस्थ अर्थात् निर्गुण तथा दोषों से युक्त अविनीत जीवों के प्रति मैत्री- अपेक्षा युक्त चित्त, इस प्रकार मैत्री भावना बहुत व्यापक है। आचार्यों ने बताया है मैत्री परेषां हितचिन्तनं यद् । दूसरों के हित की चिन्ता करना, दूसरों के लिए मंगलकामना करना यह मैत्री है। इसी प्रकार भगवती आराधना में भी मैत्र्यादि भावों का चिन्तन किया गया है। जैसे प्राणियों के साथ मैत्री भाव में स्थित रहना मैत्रीभाव है। प्रत्येक प्राणी के प्रति अनुकम्पा करना करुणा भावना है। यति गुण का विचार करना प्रमोद भावना है, तथा सुख-दुख में समभाव रखना माध्यस्थ भावना हूँ१७ सर्वार्थसिद्धि के अनुसार परेषां दुःखानुत्पत्यभिलाषी मैत्री: अर्थात् दूसरों को दुख की उत्पत्ति न हो ऐसी अभिलाषा करना मैत्री है। संसार के समस्त जीव क्लेश, कष्ट और आपत्तियों से दूर रहकर सुखपूर्वक जीवें, परस्पर वैर न रखें, पाप न करें, और कोई किसी को पराभव न दे ये मैत्री-भावना के लक्षण हैं (१९ प्रमोद-भावना गुणी जनों के प्रति होने वाली अनुरागवृत्ति प्रमोद भावना है। मैत्री-भाव की तरह प्रमोदभाव भी साहजिक परिणति है। गुरु, ज्ञानी, तपस्वी, योगी आदि गुणीजनों का आदर, सत्कार, करना, इस भावना की फलश्रुति है। सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ के अनुसार – मुख की प्रसन्नता, अन्तरंग की भक्ति एवं अनुराग को व्यक्त करना प्रमोद यति मुनि महात्माओं में नम्रता, वैराग्य, निर्भयता. अभियान रहित पना, निर्दोषता, निर्लोभता, निर्मलता इत्यादि गुण होते हैं अतः इन गुणों का विचार कर उन गुणों में हर्ष मनाना प्रमोद-भावना का लक्षण है। उपाध्याय विनयविजयजी के अनुसार "भवेत् प्रमोदो गुणपक्षपात:२२ १७. भगवती आराधना गा. १६९६ १८. सर्वार्थसिद्धि ७/११/३४९/७ १९. ज्ञानार्णव - २७/७ २०. सर्वार्थसिद्धि ७/११/३४९ २१. भगवती आराधनावृत्ति १७९६/१५१६/१५ २२. शान्तसुधारस भावना - १३/३
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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