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________________ १८६ / योग- प्रयोग- अयोग इसके अतिरिक्त अध्यात्म के विषय में मुख्यतया संसार ( भवचक्र) की निस्सारता और निर्गुणता का, राग-द्वेष-मोहरूपी दोषों के कारण भवाटवी में जो भ्रमण करने और क्लेश सहने पड़ते हैं उनका यथातथ्य चित्रण किया जाता है। भिन्न-भिन्न प्रकार से भावनाओं को समझाकर मोह-ममता का निरोध करना ही अध्यात्मयोग का प्रधान लक्ष्य होता है । मोक्षाभिलाषी आत्मा निरन्तर साधना में संलग्न रहता है, आराधना में आसीन रहता है, उपासना में स्थिर रहता है और संयोग-वियोग से परे रहता है, इसे अध्यात्मयोग कहते हैं, अतः मुनि महर्षि महात्माओं और महायोगियों के लिए यह चिन्तन, मनन, अध्ययन, परिशीलन का विषय है । अध्यात्मयोग कुछ विशेष लक्षणों से युक्त होता है, जो साधक को उसके अधिकार से न केवल अध्येता ही, अपितु प्रयोगकर्ता बनाकर परिणमनशील भी बना देता है । व्युत्पत्ति एवं परिभाषा व्युत्पत्यार्थ स्वरूप में अध्यात्म को देखा जाये तो अनुभूत होता है कि “आत्मानमधिकृत्य यद्वर्तत तद्ध्यात्मकम्" आत्मा को अधिकृत करने जो वर्तता है उसे अध्यात्म कहते हैं । स्वात्मा में संलीन साधक के सम्मुख बाह्य पदार्थ विद्यमान होने पर भी उसका उसे कुछ भी असर नहीं होता, क्योंकि बाह्य - विकल्पों से विमुख होकर सम्यकं धर्मध्यानादि आत्म स्वरूप का चिन्तन करना ही अध्यात्म तत्व है। अतः इसी हेतु यहाँ अध्यात्म की परिभाषा बन गई। 'सम्यग्धर्मध्यानादि भावना अध्यात्म ।' यहाँ सम्यग्धर्मध्यानादि भावना का तात्पर्य यही है कि ज्ञान भावना, दर्शन भावना, चारित्र भावना और वैराग्यभावना ये चारों धर्मध्यान की भावनाएँ अध्यात्मयोग की चरमावस्था है, अतः शीलांकाचार्य ने इस परिभाषा में अध्यात्मयोग से भावना योग में कैसे प्रवेश किया जाय उसका उपाय बताने की कोशिश की है। अध्यात्म की अनुभूति तात्त्विक चिन्तन का विषय है। तात्त्विक चिन्तन से ही औचित्य क्या है, क्या नहीं का निर्णय होता है अतः हरिभद्रसूरि ने औचित्यादि से युक्त समस्त तात्विक चिन्तन को ही अध्यात्म" कहा है। १. तत्वचिन्तनमध्यात्म- मौचित्यादियुत्तस्य (योगबिन्दु गा. ३८० पूर्वाद्ध)
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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