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________________ कारण चित्त में प्रसन्नता होती है और उच्च योग अंग प्रत्याहार अंगीकार करता है । जिससे पूर्ण विश्वास का मार्ग मिलता है । इस दृष्टि में सूक्ष्म बोध गुण प्रकट होता है। यहाँ साधक जीवादि नव तत्वों को पूर्ण श्रद्धा के साथ समझता है। स्थिरादृष्टि वाला सम्यक्त्वी ही होता है और उसका गुणस्थान ४-५-६ में है। वह जो कार्य करता है अनासक्त भाव से करता है। वह आत्मा को मोह मूर्छित नहीं होने देता; किन्तु आत्मपरिणति में ही रहता है। स्थिरा दृष्टि का कोष्ठक कोष्ठक नं. १७ दर्शन योगांग रत्न प्रभा प्रत्याहार सम नित्य दोषत्याग भ्रांतित्याग योग- प्रयोग - अयोग / १७७ गुणप्राप्ति सूक्ष्मबोध अलोलु पतादि गुणस्थान ४-५-६ ६. कान्तादृष्टि कान्ता नामक छठी दृष्टि में पदार्पण करने के पूर्व साधक को यौगिक सिद्धियाँ' प्राप्त हो चुकी होती हैं । यहाँ से साधक की प्रगति क्रमशः वर्धमान होती है। इस दृष्टि में . पहुँचा हुआ साधक धारणा नामक योगांग की प्राप्ति करता है । धारणा का अर्थ है "धारणा तु क्वचित् ध्येये चित्तस्य स्थिरबन्धनं" अर्थात् किसी पदार्थ के एक भाग पर चित्त की स्थिरता होना धारणा है। यहाँ साधक का बोध "तारा की प्रभा" वत् होता है। दर्शन स्थिरादृष्टि की तरह नित्य - अप्रतिपाति अत्यन्त निर्मन और बलिष्ठ होता है। क्योंकि तारा का प्रकाश रत्न की कान्ति से व्यापक निर्बल और सम्यग्दर्शन में स्थित रहता है । साधक में आत्मानुभव या तात्त्विक बोध इतना स्पष्ट होता है जिससे यहाँ " अन्यमुद" नाम का दोष टल जाता है फलतः साधक स्वस्वरूप में स्थित रहता है अतः यहाँ हर्ष, शोक इत्यादि समस्त बाह्य प्रवृत्तियाँ प्रायः समाप्त हो जाती हैं और मीमांसा गुण उजागर हो जाता है। पंचमदृष्टि में सूक्ष्मबोध होने के पश्चात् स्वाभाविक क्रम में मीमांसा गुण उत्पन्न होना चाहिए क्योंकि मीमांसागुण से ही सूक्ष्मबोध का चिन्तन-मनन और मंथन होता है। तत्वश्रवण द्वारा उत्पन्न स्थिर गुण से जब शुभ विचार श्रेणि प्राप्त होती है तब साधक की प्रगति में प्रकर्षता बढ़ती हैं १२. योगदृष्टि समुच्चय - श्लो १६३ पृ. ५१३ ।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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