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________________ १६२/ योग-प्रयोग-अयोग शास्त्र योग शास्त्र शब्द दो धातुओं से बना है। "शास्" और त्रैड शास् अर्थात् अनुशासन और त्रैड् अर्थात् पालन । अनुशासन का उचित पालन आचार संविधा या आज्ञायोग में समावित होता है। अतः शास्त्र वही है जिसमें आत्महित शिक्षा का सामर्थ्य हो, स्वाभाविक संरक्षण की क्षमता हो और सर्वज्ञ प्रणीत सत्यता हो । सर्वगणसम्पन्न केवली भगवन्त ही सर्वज्ञ होते हैं अतः सर्वज्ञों की वाणी ही शास्त्र है। शास्त्र से उचित ज्ञान और ज्ञान से अभय, अद्वेष, अखेद आदि की अवस्था और मिथ्या अज्ञान समझा जाता है। शास्त्रयोगी क्रमशः ज्ञानाध्ययन द्वारा विकास को प्राप्त करता हुआ यथाप्रवृत्तिकरण, पश्चात् अपूर्वकरण और ग्रंथिभेद करता हुआ अनिवृत्तिकरण से आगे सम्यक्त्व प्राप्त करता है। विशुद्धि का प्रादुर्भाव होते ही अप्रमत्तयोग तीव्र बोध से प्रयुक्त होता है और शास्त्रानुसार अखण्ड साधना सधती है। फलस्वरूप वही शास्त्र जीवन बन जाता है कैवल्यज्योति प्रगट हो जाती हैं। आकृति नं. ३ यथाप्रवृतिकरण अपूर्वकरण ग्रन्थिभेद अनिवृत्तिकरण सम्यक्त्व सामर्थ्य योग __ सामर्थ्य साधक का स्वयं का स्वात्म स्वभाव है। असमर्थता के आवरणों को तोड़कर योग पद्धति द्वारा, शास्त्रयोग के अवलम्बन द्वारा जब साधक स्वात्म स्वभाव की सिद्धि स्वरूप सामर्थ्य को जगाता है जब सामर्थ्य योग सिद्ध होता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग के भेदों में अभेद सिद्धि से स्वात्म स्वभाव स्वरूप सामर्थ्य योग को इच्छायोग से प्रारम्भ कर शास्त्रयोग की सहायता से सिद्ध किया है। २. प्रशमरति-श्लो. १८८ ३. ज्ञानसार-श्लो. ३ शास्त्राष्टक
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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