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________________ १०. प्रमत्त दशा । ११. ध्यान स्वरूप तप की अल्पता । १२. अतिचार शुद्धिकरण रूप आवश्यकादि क्रिया की आवश्यकता । योग-प्रयोग- अयोग / १३९ १०. अप्रमत्त भाव की रमणता । ११. १२. ३. योग एक स्राव है कर्म के बन्धन का अभ्यास क्रम में अपने आपको देखो ५. अध्यात्मसार - श्लो. ५१८ क्रिया योग का स्वरूप ज्ञान और क्रिया का घनिष्ठ सम्बन्ध है, क्योंकि दोनों के संयोग से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। क्रिया योग में ज्ञान की गौणता और क्रिया की प्रधानता होती है, और ज्ञानयोग में क्रिया की गौणता होती है। ज्ञान योग की साधना के लिए क्रियायोग भूमिका स्वरूप है। क्रिया योग के अभ्यास से ही साधक क्रमशः ज्ञानयोग को प्राप्त कर सकता है। क्योंकि जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। जैसे कनकोपन याने सोने और पाषाण-रूप मल का सम्बन्ध अनादि काल का है और बद्ध कर्म का स्वभाव जीव को रागादि रूप से परिणमाने का है। जैसे कोई व्यक्ति वस्त्र में तेल लगाकर धूल में सुखा दे तो वह धूल वस्त्र में चिपक जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग आदि से जब संसारावस्थापन जीव के आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन- हलन चलन होता है, उस समय अनन्तानन्त कर्म योग्य पुद्गल परमाणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ सम्बन्ध होने लगता है । जैसे अयोगोलक - अग्नि से संतप्त लोहे का गोला प्रतिसमय अपने सर्वांग से जल को खींचता है, उसी प्रकार संसारी छद्मस्थ जीव अपने मन, वचन, काया की चंचलता से मिथ्यात्व आदि कर्मबन्ध के कारणों द्वारा प्रतिक्षण कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता रहता है। दूध-पानी, अग्नि-लोहे का गोला, स्वर्ण-पाषाण आदि का जैसे सम्बन्ध होता है उसी प्रकार का जीव और कर्मपुद्गलों का सम्बन्ध हो जाता है । यहाँ उन सभी कर्मपुद्गलों में से आवश्यक क्रियायोग को स्वीकार किया गया है। व्यवहार से या निश्चय से आवश्यक कर्मयोग करने पर व्यवहार और निश्चयतः चेत्तविशुद्धि होती है ऐसा कारण कार्यभाव की अपेक्षा से कहा गया है। कर्मयोग की साधना से भय, द्वेष, खेद, क्रोध, मान, माया, लोभ, निन्दा आदि दोषों का नाश होता है । ध्यान स्वरूप तप से विशुद्धि । अतिचार शुद्धिकरण रूप प्रक्रिया ।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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