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________________ १३४ / योग-प्रयोग-अयोग होता है और उसका उपभोग दीर्घकाल तक चलता है। क्रिया होते ही क्रिया का बन्ध होता है, बन्ध होने के पश्चात् अनेक कर्मों का क्षय होता है और अनेक कर्मों का संचय होता है । संचित कर्म कब सक्रिय होंगे इसका कोई नियम नहीं है। __ आज बीज बोया है इसलिए कि मीठे फल मिलेंगे किन्तु आज ही फल का वह अधिकारी नहीं हो सकता, जब काल परिपक्व होगा तब फल मिलेंगे। कर्म का जो बन्ध हुआ है वे कर्म सत्ता काल में पड़े रहेंगे। इस सत्ता काल को अबाधा काल कहते हैं। यहाँ कर्म का अस्तित्व है किन्तु उदय में आने का समय परिपक्व नहीं हुआ है। परिणाम की क्षमता जब तक उदित नहीं होती तब तक सत्ता में कर्म पड़े रहते हैं । लकड़ी में अग्नि का अस्तित्व है किन्तु जब तक संयोग नहीं मिलता अग्नि प्रज्ज्वलित नहीं होती। कर्म सत्ता में पड़े हैं जब तक काल परिपक्व नहीं होता कर्म उदय में नहीं आते। स्थिति बन्ध पूर्ण होते ही कर्म उदय में आते हैं, भोगे जाते हैं और नष्ट होते जाते हैं। इस प्रकार रागात्मक और द्वेषात्मक प्रवृत्ति से कर्म का बन्ध होता है और यथा समय भोगने पर टूटते हैं । बन्धन और मुक्ति दोनों प्रक्रिया का चक्र परिभ्रमण करता है। हमारी वासना कर्म को आकर्षित करती है और कषाय द्वारा बंध करती है। आकर्षण होता है मन, वचन और काया की चंचलता के द्वारा और बन्ध होता है काषायिक वृत्ति द्वारा । इस प्रकार पुरातन कर्म अपना फल देकर अलग हो जाते हैं और अभिनव कर्मों का बन्ध होता रहता है.। जैसे सरिता में प्रवाहमान जलकण भिन्न-भिन्न हैं, विराट जलराशि बह जाती है, फिर भी पीछे से आने वाले जल कण उसके प्रवाह को चालू रखते हैं। उसी तरह पूर्व के आबद्ध कर्म अपने समय पर फल देकर क्षय होते रहते हैं और नये कर्म स्थान ग्रहण करके कर्म, प्रवाह को चालू रखते हैं। इस प्रकार आत्मा और कर्म का अनादि सम्बन्ध है अकेले कर्म से सम्बन्ध नहीं होता है, प्रवाह की तरह नये और पुराने कर्म की बन्ध और मुक्त दोनों अवस्था प्राप्त होती है। ___ जैन दर्शन की मान्यता है कि संसारी आत्मा स्वयं कर्मों का कर्ता और भोक्ता है। आत्मा ही अच्छे या बुरे कर्मों को करता है और उसका उसी रूप में फल भोगता है और प्रयत्न से उन कर्मों को बिना भोगे भी तोड़ सकता है। कर्मों को भोगता हुआ जीव चारों गतियों में नाना रूप धारण करता है और मुक्त होने पर सिद्धत्व स्वरूप को भी प्राप्त करता है। जीव जैसे कर्म बन्धन को बांधने में समर्थ है वैसे ही कर्मबन्धन से मुक्त होने में भी समर्थ है। कर्म का आदि है तो अंत भी है।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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