SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग-प्रयोग- अयोग / ११३ उनका प्रत्याहार निष्पन्न होता है। इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिये प्रतिसंलीनता की परम आवश्यकता है। इन्द्रिय, कषाय तथा मन, वचन, काय आदि योगों को बाहर से हटाकर भीतर में गुप्त करना संलीनता है। शास्त्र में इसे "संयम" तथा "गुप्ति" भी कहा गया है। इन्द्रिय, कषाय व योग आदि का संयम संकोच एवं निग्रह करना प्रतिसंलीनता है। उस दृष्टि से प्रतिसंलीनता संयम संकोच एवं निग्रह रूप तप का परम उपाय है तथा संयम की विशुद्ध साधना है । प्रतिसंलीनता के भेद प्रतिसंलीनता चार प्रकार की है इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता, कषायय-प्रतिसंलीनता, योग-प्रतिसंलीनता तथा विविक्ताशयनासन सेवना । १५ यद्यपि उत्तराध्ययन में प्रतिसंलीनता के स्वरूप में सिर्फ विविक्तशयनासन को हीं लिया गया है। वहाँ पर मुख्य दृष्टि से साधक को ध्यान व समाधि के उपयुक्त एकांत स्थान की गवेषणा करने को कहा है, ध्यान से संयम की वृद्धि होती है, इस कारण ध्यान व समाधि में साधन रूप विविक्तशयनासन को वहाँ प्रतिसंलीनता बताकर बाकी भेदों के प्रति सहज उपेक्षा बतायी गयी है । किन्तु भगवती सूत्र आदि में विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है, वहाँ उसके सभी रूपों पर विचार किया गया है। जैसे वह रूप यदि सुन्दर है तो राग का हेतु है और असुन्दर है तो द्वेष का हेतु हैं। जो उस रूप में राग और द्वेष नहीं करके समभाव रखता है-वही वीतराग है। ७. धारणा योग का छठा अंग धारणा है । चित्त की एकाग्रता के लिए उसको किसी एकदेश - स्थानविशेष में स्थित करना - जोड़ देना- धारणा है । १६ यहाँ पर देश स्थानविशेष आदि शब्द से - नाभि, हृदय, नासिका का अग्रभाग, कपाल भ्रकुटि, तालु, नेत्र, मुख, कान और मस्तक आदि यह ध्यान करने के लिए धारणा के, स्थान हैं । अर्थात् इन स्थानों में से किसी भी एक स्थान पर चित्त को स्थिर करना चाहिए। चित्त का स्थिर करना ही "धारणा " है। १५. भगवती सूत्र २५/७ १६. ‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा' (यो. ३/१)
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy