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________________ ८०/ योग-प्रयोग-अयोग रस का स्राव होता है। पिनिअल, सोलार जैसी ग्रन्थियों से पवित्रात्मक रूप मधुर रसास्राव पाया जाता है। हमारे भावों के अनुरूप हमारी लेश्याएँ तरंगित होती हैं । २ हमारी आंतरिक चेतना को जगाने के लिए ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण आवश्यक है। रस परित्याग से चेतना के अनेक द्वार खोले जाते हैं । वासनाएँ समाप्त की जाती हैं, उत्तेजनाएँ नष्ट की जाती हैं। प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र के शब्दों में सात्विक भोजन से प्राप्त रस पाचन शक्ति के लिए पर्याप्त मात्रा में आवश्यक है। किन्तु रसना की लोलुपता सदा गतिमान रहती है, (ऐक्टिव अर्थात सक्रिय होती है ।) रस विकृति की उत्पत्ति से प्रभावित संस्कार अनेक आकर्षण, विकर्षण और संघर्षण पैदा करती है। अतः कषायों द्वारा तीव्र रसों को मंद करने का एकमात्र उपाय ध्यान है। आहार संज्ञा पर विजय प्राप्त करने के लिए वृत्तियों का परिवर्तन वृत्तियों पर आक्रमण, तीव्र रस को क्षीण करने का सामर्थ्य केवल ध्यान में है। अतः लेश्या और योग में रस सम्बन्धी ज्ञान अत्यन्त उपयोगी और आवश्यक है। जिह्वा और तालु में पाँच प्रकार का रसास्वाद होता है। मीठा, खट्टा, नमकीला, कडुआ और तीखा । मीठा और खट्टा स्वाद जिह्वा के अग्रभाग पर, नमकीला स्वाद दोनों किनारों पर, कडुआ स्वाद जिह्वा के पिछले भाग पर और तीखा अग्र और पीछे दोनों के सम्बन्ध से होता है । मीठा स्वाद क्षुधा को घटाता है, कडुआ क्षुधा को बढ़ाता है, खट्टा प्यास बुझाता है, नमकीला प्यास बढ़ाता है, ये सारी प्रवृत्तियाँ इन्द्रियों द्वारा होती हैं और लेश्या भाव द्वारा परिणमन होती हैं। पदार्थों में पोटेंशियल रस है और रसेन्द्रिय में पोटेंसियल सेंसटिविटी है। जिह्वा अनुभव करने में सक्षम है, पदार्थ अनुभव देने में समर्थ है किन्तु दोनों के बीच में योग जुड़ा हुआ है। इन्द्रिय अकेली है स्वाद नहीं, पदार्थ अकेला है स्वाद नहीं, स्वाद का अनुभव इन्द्रिय, मन, चेतना आदि के संयोग से होता है। अतः संयोग ही रसयोग है। वैज्ञानिक टालस्टाय ने आत्मनियन्त्रण का सरल २. हिन्दी विश्व कोष भा. २ पृष्ठ-२२४, २२९ पृष्ठ पर मिलता है कि ये तरंगें विद्युतचुंबकीय तरंगों में परिवर्तित होती हैं। जिस धातु का धनाग्र हो उस धातु के परमाणुओं से प्रथम आघात होने पर इलेक्ट्रॉन उस धनाग्र के तल के भीतर जाते हैं, इन परमाणुओं से इलेक्ट्रॉनों की गति में प्रतिरोध होता है क्योंकि वे परमाणु भी अन्य इलेक्ट्रॉनों से परिवेष्ठित होते हैं। प्रत्येक धातु में धात्वीय इलेक्ट्रॉन होते हैं जिनके कारण धातुएँ विद्युतचालक होती हैं । धनाग्र में प्रवेश करते समय ऋणाग्र से आने वाले इलेक्ट्रॉनों तथा धनाग्र के आंतर इलेक्ट्रानों में अनेक संघात होते हैं। __ अतः अंत में जब बाह्य इलेक्ट्रॉनों से विद्युतचुंबकीय तरंगें उत्पन्न होती हैं तब इन इलेक्ट्रॉनों की न एक समानता होती है और न एक वर्ण होता है। अतः इस अविच्छिन्न वर्णक्रम को श्वेत विकिरण भी कहते हैं।
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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