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________________ १. शरीर और आत्मा की शक्ति का परिणमन रूप - वीर्य योग और वीर्य जैसे योग, योग के हेतु, योग की आवश्यकता और योगमुक्ति के उपायों का प्रयोग जानना आवश्यक है, वैसे ही वीर्य, वीर्य के हेतु, वीर्य की आवश्यकता और वीर्य उपायों के प्रयोग जानना भी आवश्यक है, क्योंकि योग और वीर्य का कार्य कारण सम्बन्ध है। वीर्य आत्मा का परिणाम है, मन, वचन और काया रूप शुभयोग के सम्बन्ध प्रयोग से वीर्यान्तराय कर्मों का क्षयोपक्षम होता है अतः फलस्वरूप आत्मवीर्य और लब्धिवीर्य प्रकट होता रहता है। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव सम्बन्धी आत्मा और शरीर की.अनेक प्रवृत्ति रूप वीर्य दृश्यमान होता है। योग और वीर्य ; आत्मा और शरीर के दो पहलू हैं। दोनों में अन्तर और बाह्य, सूक्ष्म और स्थूल, तीव्र और मंद परिणाम का रूपान्तरण होता रहता है।' वीर्य का शब्दार्थ आगम में वीर्य शब्द का सामान्य अर्थ शक्ति है किन्तु विशेष रूप में जैसे कि उत्तराध्ययन,२ में सामर्थ्य, सूत्रकृतांग में अंतरंग और बहिरंग, चन्द्र प्रज्ञप्ति सटीक में आंतरिक उत्साह अर्थ में तथा अन्य ग्रन्थों में बल५ उत्साह का अतिरेक पराक्रम', चेष्टा, सामर्थ्य इत्यादि अर्थ में मिलता है। वीर्य की व्युत्पत्ति विशेषेण ईरयति-प्रेरयति अहिंत येन तदीर्य" ईर गति प्रेरणयोः धातु से वीर्य शब्द बना है अहित त्याग से आत्म-शक्ति का संवर्धन होता है। उसे ही आत्मवीर्य कहते हैं। १. सिद्धहेम शब्दानुशासन पृ. २४, २. उत्तराध्ययन सू. अ. ३गा. १०,११ ३. सूत्रकृतांग सू. श्रु. २-५ ४. चन्द्र प्रज्ञप्ति सू. सटीक-२० ५. भगवती सू. सटीक शतक-७ उ. ७ ६. स्थानांग सू. स्था. ८ उ.३ ७. कल्प सुबोधिका सटीक अधि. १-६. क्षण ८. सर्वार्थसिद्धि - ६/६/३२३-१२ ९. पंच संग्रह गा. ४
SR No.023147
Book TitleYog Prayog Ayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1993
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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